Saturday, June 24, 2023

गणेश शंकर विद्यार्थी के विचार (132वीं जयंती पर विशेष)



लेखक परिचय : डॉ राकेश शुक्ल (1967) विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म महाविद्यालय , कानपुर के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं | प्रो. शुक्ल के 100 से अधिक शोध पत्र और समीक्षा आलेख राष्ट्रीय शोध पत्रों में प्रकाशित हो चुके हैं तो वहीं 24 शोध पत्र पुस्तकों का हिस्सा हैं तथा उन्होंने 16 विद्यार्थियों का शोध निर्देशन तथा 21 विद्यार्थियों के लघु शोध का निर्देशन भी किया है | उन्होंने दर्जनों विषयों पर आकाशवाणी लखनऊ से अपने विचार रखने के साथ ही निरंतर तमाम पत्र-पत्रिकाओं के साथ न सिर्फ लेखन बल्कि सम्पादन का कार्य भी किया तथा तमाम पुस्तकों की समीक्षा और भूमिकाएँ लिखीं |

राष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रखर व्याख्यान के लिए जाने जाने वाले  प्रो. राकेश ने "जलता रहे दिया" (कविता संग्रह), "उनकी सृष्टि अपनी दृष्टि" जैसी तमाम पुस्तकें लिखीं जो कि पाठकों के बीच खूब लोकप्रिय हुईं | शिक्षण कार्य में सक्रिय प्रो. राकेश शुक्ल विभिन्न विश्वविद्यालयों में पी-एच०डी० के परीक्षक तथा विषय विशेषज्ञ एवं चयन समिति का हिस्सा हैं | डॉ शुक्ल को अब तक 'इनोवेशन लीडरशिप एवार्ड' (पं० बंगाल के राज्यपाल श्री केसरी नाथ त्रिपाठी द्वारा) , 'साहित्य सेवा सम्मान' (भारत के राष्ट्रपति, तत्कालीन राज्यपाल बिहार- श्री रामनाथ कोविन्द द्वारा) तथा जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय युवा केंद्र के "साहित्य श्री सम्मान" (गुजरात के राज्यपाल श्री ओपी कोहली द्वारा) जैसे तमाम सम्मानों द्वारा नवाज़ा जा चुका है | 



विद्यार्थी जी के विचार 

विद्यार्थी जी के कुछ निबन्धों के आधार पर हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि उनकी दृष्टि कितनी व्यापक थी, उनका उद्देश्य कितना महान था। देश की स्वाधीनता और राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए उनका लेखकीय योगदान कितना महत्वपूर्ण है, जिसकी चर्चा सामान्यतः कम ही हुई है।


विद्यार्थी जी का लम्बा आलेख ‘जेल-जीवन की झलक’ आज के प्रत्येक विद्यार्थी को अवश्य पढ़ना चाहिए। यह सिर्फ एक आलेख न होकर देश की आजादी के लिए संघर्षरत वीर, स्वातंत्र्य सेनानियों के कष्टों एवं संघर्षों की ऐसी महागाथा है, जिसे पढ़ते हुए हम उन पर गर्व करते हैं, तो दुःख के सागर में डूबते उतराते भी हैं। एक अंश के विचार और भाषा द्रष्टव्य है, ‘‘जहाँ जंजीरें खनक रही हों, काल कोठरी का अँधेरा हो, जहाँ बात-बात पर तिरस्कार और मारामार हो, जहाँ पग-पग पर फटकार और प्रहार पर प्रहार हो, जहाँ मनुष्यता को रौंद डालने का विचार काम करता हो, जहाँ मनुष्यों को निकृष्ट प्राणी की भाँति रहना वांछनीय हो, जहाँ खाने के लिए मिट्टी मिला आटा और कंकड़ मिली दाल हो, पहनने के लिए जूं भरे फटे कम्बल और लज्जा का भी निवारण न कर सकने योग्य वस्त्र हों, जहाँ हमारे पथ के पथिक, हमारे साथी, हमारे सखा, हमारे दोस्त, हमारे प्यारे भाई, हमारे अपने, एक नहीं, दो नहीं, दस नहीं, सौ नहीं, हजारों की तादात में..............।’’

डायरी और संस्मरण की समन्वित शैली से युक्त यह निबन्ध आजादी के उन दीवानों का रोजनामचा भी है, जो कैदी जीवन बिता रहे थे। महात्मा गाँधी के आह्वान पर जिन दिनों असहयोग आन्दोलन अपने चरम पर था, उन दिनों आजादी के दीवानों की कमी न थी, फिर भी समाज के अनेक लोग ऐसे थे जो उन्हें उपेक्षा और तिरस्कार से देखते थे। उनका मानना था कि ये लोग किसी दूसरी दुनिया के हैं जो उन अंग्रेजों से आजादी माँग रहे हैं, जिनके साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता। ऐसे लोगों के विषय में वे बड़े आहत भाव से लिखते हैं, ‘‘कानपुर जाने वाली गाड़ी की ओर बढ़़ रहे थे कि इतने में ‘वंदे मातरम्’, ‘महात्मा गाँधी की जय’ की ध्वनि कानों में पड़ी। नजर घुमाकर देखने पर, स्टेशन को पार करने वाले पुल के जीने पर पुलिस के गार्ड के बीच अनेक युवक चलते हुए दिखाई पड़े, जिनके पैरों में बेड़ियाँ थीं। एक प्रकार से उनके हाथ-पैर बँधे हुए थे। परन्तु तो भी जुबान और जुबानों से बढ़कर हृदय खुले हुए थे। उन्होंने जय बोली। माता की वंदना की। .... परन्तु युवकों के कण्ठ से निकली आवाज स्टेशन की दीवारों से टकराकर रह गई।... लोग चुपचाप उन्हे देखते रहे। मानों वे एक तमाशा देखते थे। मानों वे एक जुलूस देखते थे।’’

इस आलेख के माध्यम से विद्यार्थी जी ने न सिर्फ उन स्वातंत्र्य सेनानियों के कष्टों एवं संघर्षों का वर्णन किया है; वरन् तत्कालीन शासन-प्रशासन तंत्र, विशेषकर जेल, थाना आदि के अधिकारियों एवं पुलिस के कारनामों का भी बारीक विश्लेषण किया है। उन्होंने अंग्रेज सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी का भी निर्भीकता से वर्णन किया है। वे लिखते हैं, ‘‘जेल के कर्मचारी पुलिस वालों से भी अधिक रिश्वतखोर और अत्याचारी हैं। मनो माल जेल से साफ उड़ा लेते हैं। खूब रुपया खाते हैं। कैदियों से खाते और कैदियों का पेट काट-काट कर खाते, और सरकारी खाते। जेल के कर्मचारियों के घरों की तलाशी हो, तो मनो माल जेल का उनके घरों से निकले।’’

स्वराज्य के मतवालों का चित्रण करते हुए उन्होंने आजादी के उन नायकों के चरित्र पर किंचित प्रकाश डाला है जो समय-समय पर जेल-जीवन में उनके सहयात्री बने। इनमें पं0 मोतीलाल नेहरु, पं0 जवाहर लाल नेहरु, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, डाॅ0 जवाहर लाल रोहतगी, बाबू रणेन्द्रनाथ बसु, मौलाना कमाल उद्दीन जाफरी तथा रामनाथ गुर्टू आदि प्रमुख हैं। उनमें से अनेक ऐसे मतवाले भी हैं, जो अल्पज्ञात अथवा अज्ञात रह गए। ऐसे न जाने कितने पराक्रमी क्रान्तिकारी थे। इन्ही में से एक थे सीताराम जी शुक्ल जिन्होंने जेल में राजनीतिक कैदियों वाला अच्छा भोजन लेने से मना कर दिया था। उन्होंने साधारण कैदियों वाले भोजन, वस्त्र और कड़ी मशक्कत के लिए जेल में सत्याग्रह शुरु कर दिया था। हाथों-पैरों में हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ डालकर उन्हें लगभग एक दर्जन से अधिक जेलों में रखा गया था। विद्यार्थी जी के शब्दों में, ‘‘उन्होंने कह दिया, एक तौक की जगह दो तौक पहना दो, और एक बेड़ी की जगह दो बेड़ी, इससे ज्यादा तुम कर ही क्या सकते हो।.......... वे अच्छे जमींदार हैं। चाहते तो आनन्द से घर रहते। परन्तु देशभक्ति का नशा उनके सिर पर ऐसा सवार है कि वे भय को भय नहीं मानते और न आराम को आराम।’’


इस प्रकार इस आलेख में अनेक ऐसे विवरण हैं, जिन्हे पढ़ते हुए आज के युवा यह जान सकते हैं कि आजादी कितनी त्याग, तपस्या और बलिदान का प्रतिफल है।
राष्ट्रचिन्तन में लीन रहने वाले इस महापुरुष के अनेक आलेख न सिर्फ उन दिनों युवाओं के पथ-प्रदर्शक थे; वरन् आज भी हर तरह से हमारे मार्गदर्शक हैं। विद्यार्थी जी आजादी की प्राप्ति और उसके बाद जिस तरह के राष्ट्रनिर्माण का स्वप्न देख रहे थे, उनका वह सपना आज भी पूरा नहीं हो सका है। सन् 1915 ई0 में लिखा गया निबंध ‘राष्ट्र का निर्माण’ आज भी कितना प्रासंगिक है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं, ‘‘ऊसर भूमि पुष्पों की जननी नहीं होती, और न उल्टे-सीधे डाल दिए जाने वाले बीज ही कभी पुष्पोद्यान का हाथ दिखा सकते हैं। पराजित देश किसी सभ्यता के मंदिर नहीं बनते, सरस्वती उन पर कृपा नहीं करती, लक्ष्मी उन पर दृष्टि नहीं डालती।’’ देशोद्धार या जनजीवन के अभ्युत्थान के लिए युवाओं की शक्ति को वे कितना महत्व देते थे, उनके इस उद्धरण से स्पष्ट है, ‘‘देश की सच्ची सम्पत्ति हैं उसके वे युवक ओर युवतियाँ, जिनके शरीर की आभा में प्रकृति का सबसे अधिक स्पष्ट दर्शन होता है। और जिनके हृदय में उदारता और कर्मण्यता, सहिष्णुता और अदम्य साहस के स्रोत का प्रवाह पूरे जोरों पर है।’’ विद्यार्थी जी किसी देश की सर्वतोमुखी प्रगति का सबसे बड़ा आधार वहाँ के कर्मशील और प्रतिभाशाली युवाओं को मानते थे। यहाँ ध्यातव्य है कि विगत एक सौ वर्षों में हम ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से कहाँ से कहाँ पहुँच गए बावजूद इसके दहेज प्रथा, बाल विवाह, स्त्री-पुरुष असमानता आदि की समस्याओं को हम अभी तक जड़ से मिटा नहीं पाये हैं बल्कि कन्या भ्रूण हत्या जैसी बुराइयाँ और पैदा हो गई हैं। विद्यार्थी जी ने ‘युवक’ के साथ ‘युवती’ शब्द का प्रयोग कर लगभग एक सौ वर्ष पूर्व ही स्त्री समानाधिकार को कितना महत्व दिया था। यहाँ कहना थोड़ा असंगत हो सकता है पर युवाओं को प्रबोधित करने, उनमें जागरण का मंत्र फूंकने में विद्यार्थी जी की भूमिका स्वामी विवेकानन्द जैसी ही थी।

‘राष्ट्र की आशा’ निबन्ध में देश की युवा शक्ति को झकझोरते हुए विद्यार्थी जी ने जहाँ अतीत के गौरव से प्रेरणा लेने को सीख दी है, वहीं वर्तमान की कमजोरियों, हमारे अधःपतन और हमारी अशिक्षा पर प्रहार करते हुए सोये हुए जनमानस को एक लम्बी और गहरी नींद से जगाने का कार्य किया है। वे कहते हैं कि जिन दिनों पाश्चात्य देशों में सभ्यता और संस्कृति का सूर्योदय नहीं हुआ था, उन दिनों ज्ञान-विज्ञान, व्यवसाय, धन-सम्पदा, धर्म, दर्शन, कला अर्थात् सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि में भारत विश्व का सिरमौर था। क्या कारण है कि आज हमारा देश पद्दलित, शोषित और अधोगति को प्राप्त है। वे युवकों को ललकारते हुए कहते हैं कि, ‘‘तुममें से कितने हैं, जिन्हें इस बात का बोध हो कि अर्वाचीन उन्नति के समय में, जबकि इंग्लैण्ड, अमेरिका, जर्मनी तथा जापान जैसे देशों में 99 फीसदी पुरुष तथा स्त्रियाँ शिक्षित हैं, इस देश में 94 फीसदी पुरुष तथा स्त्रियाँ ऐसे हैं जो शिक्षा रूपी सूर्य के उजियाले से कोसों दूर हैं। तुम में से कितने हैं जिन्होंने इस भयंकर दारिद्रय तथा अज्ञानांधकार को यथाशक्ति दूर करने का बीड़ा उठाया हो?’’ इसी तरह ‘माँ के अंचल में’ निबन्ध में वे देशवासियों को लोकतांत्रिक चेतना के प्रति जागरुक करते हैं और विस्तार उसकी अच्छाइयों का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि प्रजातंत्र की यह आँधी जब सारे विश्व में आई। तब भारत ही इससे अप्रभावित क्यों रहे? ‘‘यह आँधी सब जगह आई हुई है। रूस, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, टर्की, चीन सब देशों के वन-उपवन उसके झोकों से कंपित हो उठे। प्रजातंत्र की यह आँधी कई देशों में आई और उसने जनता की छाती पर शताब्दियों से रुके हुए सिंहासनों को उखाड़कर फेंक दिया। जो राष्ट्र सुषुप्तावस्था में पड़े हुए थे, वे उन्निद्रत होकर अपनेपन को प्राप्त करने दौड़ पड़े।’’
 विद्यार्थी जी इस मायने में अपने समय के विलक्षण विचारक थे कि वे अहिंसावादियों और क्रान्तिकारियों को समान रूप से प्रिय थे। जब गाँधी जी सहित वरिष्ठ पीढ़ी के उनके अधिकांश अनुयायी युवा क्रान्तिकारियों को भटका हुआ, कुमार्गी या देशद्रोही कहकर अपमानित कर रहे थे तब उन्होंने ‘वे दीवाने’ अग्रलेख लिखकर ऐसे लोगों को करारा जवाब दिया था। काकोरी काण्ड के फैसले के बाद लिखे इस अग्रलेख में वे लिखते हैं, ‘‘हम सशस्त्र क्रान्ति के उपासक नहीं हैं। हम भी उन पढ़े-लिखे मूर्खों में गिने जाते हैं, जो व्यावहारिकता को छोड़ना नहीं चाहते। लेकिन हमारे हृदय में आदर और भक्ति है, उन आदर्श पुजारियों के प्रति जो देश-काल के बंधनों को काटकर फेंक देते हैं। उनका काम क्या रंग लाएगा, इसकी उन्हें चिन्ता नहीं। वे विद्रोह के पुतले हैं। वे भारतवर्ष की अन्तर-अग्नि की चिनगारियाँ हैं।.... उनका काम है देश को उन्नत और विशाल करना।’’ इसी प्रकार ‘हमारे वे मतवाले निर्वासित वीर’ आलेख में उन्होने लाला हरदयाल जैसे उन निस्पृह, सत्यनिष्ठ, त्यागी महापुरुषों को याद किया है जो दूसरे देशों में निर्वासित जीवन जीते हुए तथा अनेक प्रकार के कष्टों और आर्थिक संकट का सामना करते हुए देश की स्वाधीनता के लिए प्रयत्नशील थे। वे लिखते हैं कि, ‘‘हम लोग तो अंधे हैं। हम दूसरों की आँखों से देखते हैं। विदेशों के वीरों की चरितावली हम बड़े चाव से पढ़ते हैं, पर हमारे देशवासियों ने स्वतंत्रता के युद्ध में जिन कठिनाइयों का सामना किया और जो यंत्रणाएँ सहीं, उनका हमें पता तक नहीं।’’ चौरी चौरा काण्ड से आहत होकर महात्मा गाँधी जब अचानक अपने उफान पर चल रहे असहयोग आन्दोलन को स्थगित कर देते हैं, और उपवास पर बैठ जाते हैं, तब विद्यार्थी जी उनके इस निर्णय से सहमत नहीं हो पाते। ‘जेल जीवन की झलक’ आलेख में वे लिखते हैं कि सैकड़ों सत्याग्रही जो रोज जेल में महात्मा गाँधी की जय के नारे लगाते थे, उनके इस निर्णय से ऐसे कुम्हला गये जैसे तुषार से बतिया कुम्हला जाती है। ‘‘एक महाशय बोले, चौरी चौरा काण्ड पर उपवास ही क्यों? माघ मेले में जिस प्रकार कीलदार पीढ़े पर साधू लोग बैठकर अपनी तपस्या की प्रदर्शनी किया करते हैं, वैसा ही एक पीढ़ा गाँधी जी पास भेज देना चाहिए, और वे उस पर बैठक तपस्या भी करें।’’



विद्यार्थी जी का मानना था कि नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में वैमत्य की बजाय एक-दूसरे के प्रति आदर और स्नेह का भाव होना चाहिए। वे कहते थे कि नई पीढ़ी की विद्युत शक्ति को सहेजने और उसके उचित संचालन का कार्य पुरानी पीढ़ी द्वारा किया जाना चाहिए। उनका लेख ‘युवकों का विद्रोह’ आजादी की लड़ाई में युवा क्रान्तिकारियों के योगदान को व्याख्यायित करने वाला एक महत्वपूर्ण लेख है। वे कहते हैं कि, ‘‘युवक, युवक ही क्या, यदि उसमें उत्साह और ओज न हो। युवकत्व का सबसे बड़ा प्रमाण ही यह है कि भावनाओं का वह पुंज हो और अखिल उत्साह का स्रोत।’’ इसी आलेख में हिंसा और अहिंसा के द्वन्द्व पर उनके विचार अत्यंत सार्थक और मूल्यवान हैं। वे लिखते हैं, ‘‘हिंसा और अहिंसा की विवेचना छोड़ दीजिए, विज्ञान ने वर्तमान रण शैली को बेहद भयंकर बना दिया है, उसमें वीरता नहीं रही, उसमें पशुता और हत्या का राज है, और उसके मुकाबले हमारे ऐसे शताब्दियों से निशस्त्र लोगों का खड़ा रह सकना असम्भव है। हमारे लिए तो अहिंसा ही परम अस्त्र है, उसी से हम दुनिया में किसी का मुकाबला कर सकते हैं।" इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विद्यार्थी जी क्रान्तिचेता युवकों का सम्मान करते थे, उनका उत्साहवर्धन भी, पर यह भी मानते थे कि अहिंसा का कोई विकल्प नहीं है।


विद्यार्थी जी के निबन्धों में ऋजुता, सहजता, बोधगम्यता के साथ तथ्यानुशीलन सर्वत्र विद्यमान है। उनके निबन्ध जहाँ उद्बोधन शैली में हैं और विचारात्मक हैं, वहाँ व्यास शैली का प्रयोग हुआ है। जहाँ वे दर्शन मनोविज्ञान या सैद्धान्तिक विषयों पर लिखते हैं, वहाँ समास शैली का प्रयोग हुआ है। वैसे इस तरह की प्रवृत्ति सर्वत्र नहीं दिखाई देती। दरअसल ये निबन्ध ‘प्रताप' या अन्यत्र अग्रलेखों या आलेखों के रूप में लिखे गए, जिनमें स्थान और कलेवर की एक सीमा थी। अनेक विचारात्मक निबंध भी समास शैली में हैं, जिनके एक-एक वाक्य में गम्भीर चिन्तन समाहित है। ‘लोकसेवा’, ‘सार्वजनिक सदाचार’, ‘कर्मक्षेत्र’, ‘राष्ट्रीयता’, ‘सुगमता की माया’, ’धर्म की आड़' , ‘दरिद्रता का सामना’, ‘आगामी महाभारत’ आदि अनेक इसी प्रकार के महत्वपूर्ण निबन्ध हैं। ’धर्म की आड़' तथा ‘जिहाद की जरूरत’ निबंधों में उन्होंने हिन्दू- मुसलमानों की धार्मिक रूढ़ियों, जड़ताओं, जहालत तथा अंधविश्वासों पर करारे प्रहार किए हैं।


‘स्वराज्य किसके लिए?’ एक छोटा किन्तु इतना महत्वपूर्ण लेख है, जो मुंशी प्रेमचंद सहित अनेक कथाकारों के लिए प्रेरणादायी बना। प्रेमचंद की कहानी ‘आहुति’ की नायिका का यह कहना कि, ‘‘जाॅन की जगह अगर गोविन्द गद्दी पर बैठ जाये।’’ या ‘गबन’ उपन्यास के एक पात्र देवीदीन खटिक का यह कहना कि, ‘‘साहब! सच-सच बताओ जब तुम सुराज का नाम लेते हो, तब उसका कौन सा रूप तुम्हारी आँखों में होता है?..... इस सुराज से क्या होगा? तुम दिन में पाँच बार खाना खाना चाहते हो, वह भी बढ़िया माल। गरीब किसान को एक बार भी सूखा चबेना नहीं मिलता..........।’’ आदि कथन क्या विद्यार्थी जी के इस निबंध से प्रभावित नहीं है? विद्यार्थी जी अपने इस निबंध में पहले ही स्पष्ट कर चुके थे कि, ‘‘देश में जो स्वराज्य होगा, वह होगा किसी छोटे-मोटे समुदाय का नहीं, धनवानों और शिक्षितों का नहीं, वह होगा, साधारण से साधारण आदमी तक का। संसार भर की शासन पद्धति इस समय उलट-पलट रही हैं। व्यक्ति को समान अधिकार कागजों पर दिये गये हैं परन्तु कुलीनों, धनवानों और शिक्षितों के गुट करोड़ों आदमियों को दाबे बैठे हैं।’’ इन विचारों के आधार पर हम कह सकते हैं कि विद्यार्थी जी के सपनों का स्वराज्य हमें आज तक नहीं मिल सका है।


गणेशशंकर विद्यार्थी ने कुछ कहानियाँ भी लिखी थीं, पर उनकी सिर्फ एक कहानी ही मिलती है, ‘हाथी की फाँसी’। वे मूलतः कहानीकार नहीं थे पर वस्तु और शिल्प के स्तर पर यह कहानी बहुत उत्कृष्ट है। कथ्य, भाषा, शिल्प, संवाद, किस्सागाई और रूपक तत्व में यह कहानी आज के दौर की श्रेष्ठ कहानियों की तुलना में किसी भी मायने में कमतर नहीं है। विद्यार्थी जी के हरदोई जेल में कैद रहने के दौरान सन् 1920 ईस्वी के आसपास यह कहानी लिखी गई थी। उस समय देश की आजादी के लिए मरने-मिटने वाले दीवानों की कमी नहीं थी, तो दूसरी ओर झूठी शान वाले, सुविधाभोगी, अय्याश शोषकों, सामन्तों, नवाबों की भी कमी नहीं थी। विद्यार्थी जी ने व्यंग्य शैली में इन्हीं में से एक चित्र उठाया है। कहानी एक स्नैपशाट लगने के बावजूद सोचनीय वास्तविकता का उद्घाटन करती है। बहुत सम्भव है कि कहानी पढ़कर कोई भी सामान्य पाठक इसे विशुद्ध हास्य-व्यंग की मनोरंजन प्रधान कहानी समझे, पर ऐसा नहीं है। सीधे-सादे कथानक में सशक्त संवाद योजना के द्वारा विद्यार्थी जी ने इस कहानी में बहुस्तरीय अर्थवत्ता पैदा की है। शीर्षक की अंतरध्वनि भी बहुस्तरीय है। व्यंजना यह है कि अंग्रेजों ने अपनी बुद्धि, तर्क, ज्ञान-विज्ञान और समय की पाबन्दी से देश भर के शासकों (हाथियों) को फाँसी दे दी है। यहाँ हाथी शान-शौकत वाले सामंतों, नवाबों के प्रतीक हो सकते हैं तो मद, अहंकार और घमण्ड के प्रतीक भी। कहानी अपनी अभिव्यंजना शक्ति में भी बेजोड़ है।


विद्यार्थी जी का भाषा और साहित्य के प्रति लगाव तथा उनके भाषण


हिन्दी की सेवा और उसे राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन कराने में आजादी के पूर्व जिन विद्वानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही, उनमें एक नाम विद्यार्थी जी का भी है। हिन्दी भाषा के परिष्कार, संस्कार और उसके व्याकरण सम्मत रूप का प्रचार-प्रसार करने में वे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सच्चे उत्तराधिकारी थे। मार्च 1930 में, अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन गोरखपुर में दिया गया उनका सुदीर्घ वक्तव्य ‘हिन्दी का गौरव’ अत्यंत मूल्यवान है। हिन्दी, उर्दू के उद्भव और विकास से लेकर उसके संघर्ष, ज्ञान-विज्ञान के अनेक अनुशासनों में उसके प्रयोग, सामर्थ्य  और सीमा, देश-विदेश में उसके उपयोग, लिपि, उसके साहित्यिक योगदान एवं अनेकानेक संस्थाओं द्वारा हिन्दी साहित्य की सेवा आदि पर उस समय का महत्वपूर्ण और विस्तृत लेखा-जोखा इस निबन्ध में है। इस लेख के माध्यम से जहाँ विद्यार्थी जी ने गद्य की अनेक विधाओं (नाटक आदि) में लेखन की आवश्यकता पर बल दिया, वहीं कुरुचिपूर्ण साहित्य की भर्त्सना भी की है। एक अंश द्रष्टव्य है, ‘‘सज्जनो! हिन्दी साहित्य के एक विशेष अंग पर मुझे अपना कुछ मत प्रकट करना आवश्यक जंचता है। इस समय ‘घासलेटी साहित्य’ की चर्चा बहुत जोरों से उठ रही है मुझे इस बात के बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि घासलेटी साहित्य किस प्रकार के साहित्य को कहते हैं? जो साहित्य यथार्थ में सार्वजनिक कुरुचि की वृद्धि करने वाला है, वह निःसन्देह त्याज्य और  भर्त्सनीय है।’’

इसी प्रकार ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ शीर्षक से उनके सुदीर्घ आलेख में विश्व के अनेक देशों की शिक्षा व्यवस्था का मूल्यांकन हुआ है, और उसके आलोक में भारतीय शिक्षा नीति पर उन्होंने मूल्यवान  विमर्श किया है। एक सौ वर्ष से अधिक पहले लिखा गया यह आलेख आज भी न सिर्फ प्रासंगिक है, वरन् आज की शिक्षा व्यवस्था को आईना भी दिखा रहा है।

विद्यार्थी जी कितने बड़े और सजग भविष्यद्रष्टा थे, इसे जानने के लिए उनके दो निबंधों का उल्लेख आवश्यक है। पहला ‘पहाड़ों के अंचल में’ तथा दूसरा ‘नगर जीवन’। पहाड़ों के अंचल में निबंध पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों, विशेषकर वहाँ की स्त्रियों के संघर्षपूर्ण जीवन, उनकी परवशता और उन पर होने वाले अत्याचारों के वर्णन हमारी आत्मा को कचोटते हैं। वहाँ की सांस्कृतिक चेतना, प्राकृतिक सुषमा आदि के वर्णनों में रिपोर्ताज और यात्रावृतांत का आनंद एक साथ लिया जा सकता है। विशेष बात यह है कि इस निबन्ध के माध्यम से आज से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व वे न सिर्फ प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण की बात करते हैं वरन् मशीनीकरण की अंधी दौड़ में श्रमिकों, कुलियों, टट्टूवालों आदि की छिनती हुई आजीविका पर भी गम्भीर चिन्ता प्रकट करते हैं। इसी प्रकार ‘नगर जीवन’ निबंध में आजीविका के लिए या अन्य कारणों से ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन और नगरीय जीवन के प्रति ललक के कारण नगरों एवं शहरों में बेतरतीब फैलती बस्तियों के नारकीय जीवन पर चिन्ता प्रकट की गई है। इस समस्या का पूर्वानुमान उन्होंने एक शताब्दी पहले ही कर लिया था।


बाल शिक्षा को संवारती आगरा की अनंत वेलफ़ेयर सोसाइटी

अनंत वेलफेयर सोसाइटी एक प्रयास है गरीब असहाय, अशिक्षित एवं आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को निशुल्क शिक्षा देने का , यहाँ बिना किसी भेद भाव ऊंच नीच अथवा अन्य किसी असमानता का आकलन किए हर वर्ग के बच्चों के लिए शिक्षा के दरवाजे खुले हैं  |

यह संस्था उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में सक्रिय है , समाज के अंतिम पायदान पर खड़े आगरा के क्षेत्रीय इलाकों के वो बच्चे यहाँ शिक्षा पा रहे हैं जिनके पापा रिक्शा चलाते हैं तो मम्मी कपड़े धोती हैं | आर्थिक रूप से अक्षम उन परिवार के बच्चे जो अक्सर हमारे समाज में आपको किसी नुक्कड़ चौराहे पर भीख मांगते दिख जाएँगे या फिर स्वाभिमान के साथ काम करते हुए किसी चाय की दुकान अथवा होटल में छोटू के रूप में बाल मजदूरी को बढ़ावा देते हुए ठीक ऐसे ही बच्चों को शैक्षिक सहारा दे रही है अनंत वेल फेयर सोसाइटी |


यह संस्था न सिर्फ बच्चों को साक्षर बनाती है बल्कि अधिक दिलचस्पी और लगन से पढ़ने और विषयों को सीखने की समझ रखने वाले बच्चों की उच्चय शिक्षा का भी पूरा प्रबंध करने के लिए उन्हें आगरा के बेहतरीन स्कूलों में दाखिल दिलवाती है जिसकी मासिक स्कूल फीस आदि का पूरा खर्च संस्था स्वयं वहन करती है |   

आज इस संस्था के पढ़ाए तमाम बच्चे तथाकथित बड़े स्कूलों में 90% से अधिक अंक ला कर नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं |

जो काम प्राथमिक सरकारी विद्यालयों का है, उस काम को अ-सरकारी तथा असरकारी तरह से निभा रहा है आगरा का यह संस्थान   

सितंबर 2017 में रजिस्टर्ड 7 सदस्यों की इस सोसाइटी की न सिर्फ कल्पना करने वाली बल्कि इसको नए आयाम देने वाली निधि गिल आगरा कि निवासी हैं | उन्होंने विशेष बात चीत में हमें बताया कि भारत सरकार के नीति दर्पण मे पंजीकृत इस संस्था का नाम मैंने अपने पिता अनंत गिल के नाम पर रक्खा और अनंत चौदस पर उनका जन्म हुआ जिसके कारण उनका नाम अनंत पड़ा, मुख्यता शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय इस सोसाइटी कि संकल्पना का आधार मेरे निजी जीवन से जुड़ा है, मैं समाज के लिए कुछ करना चाहती थी और भावी पीढ़ी को शैक्षणिक मजबूती देने से बेहतर सेवा मेरे माध्यम से भला क्या हो सकती थी इसलिए यह मार्ग चुना जिसमें मुझे पूरा पारिवारिक सहयोग प्राप्त है लेकिन इसकी शुरुवात दिल्ली में हुई थी जब मैंने 4 बच्चों को अपनी खुशी के लिए पढ़ाना शुरू किया था, फिर दिल्ली से आगरा लौट कर इस काम को व्यवस्थित तौर पर संस्था का रूप देते हुए प्रारम्भ किया , इस कार्य में अभी तक की यात्रा मे किसी तरह का सरकारी सहयोग नहीं लिया गया है | बाधाएँ तमाम आई और आती रहेंगी लेकिन अब तक संस्थान के कार्यों में किसी तरह कि रुकावटें नहीं आई हैं , समाज और मित्रों का सहयोग निरंतर मिलता रहा है फिर वो चाहें आर्थिक हो या मानसिक |

निधि ने बताया कि वो प्रतिदिन 70 से अधिक बच्चों को उनकी योग्यता के आधार पर 3 बैच में विभाजित कर पढ़ा रही हैं जिसमें लड़कियों की संख्या अधिक रहती है जिनमे कुछ शारीरिक रूप से अक्षम बच्चे भी शामिल हैं | 

बच्चों के सृजनात्मक एवं रचनात्म्क विकास के लिए हर शनिवार आर्ट क्लासेस होती हैं  जिसमें बच्चे अपने मन के भावों को कागज़ पर पेंटिंग के माध्यम से उकेरते हैं तथा उन्हें रंग बिरंगे रंगों के माध्यम से सँजोते हैं |


इसके अलावा भी होली , दिवाली , दशहरा , क्रिसमस हो या बाल दिवस , स्वतन्त्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस बच्चों के लिए हर कार्यक्रम का जश्न एक उत्सव की तरह मनाया जाता है जिसका पूरा खर्च जनसहयोग के माध्यम से पूर्ण होता है | 

बचपन से ही समाज के दर्द को महसूस करने वाली निधि गिल ने विज्ञान से स्नातक करने के बाद पढ़ाई भी समाज से गहराईयों से जुड़े विषय कानून और पत्रकारिता की पाई ,  इस एन.जी.ओ. की संचालिका निधि पेशे से पत्रकार रही हैं जिन्होंने जागरण इंस्टीट्यूट ऑफ जर्नलिज़्म, दिल्ली से पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद 3 साल दैनिक राष्ट्रीय पत्र अमर उजाला में शिक्षा को कवर किया तथा कुछ समय आकाशवाणी में भी अपनी सेवाएँ दी |

वर्तमान मे निधि सामाजिक कार्यों के अलावा निजी जीवन में जीवन यापन के लिए आगरा में होम ट्यूशन लेती हैं , अनंत वेलफ़ेयर सोसाइटी को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के अलावा उनका सपना है कि वो आगामी समय में संयुक्त रूप से एक अनाथालय तथा प्राइमरी स्तर का एक ऐसा विद्यालय खोल सकें जो शिक्षा के बाजारीकरण से दूर हो, जहाँ बड़ी संख्या में शिक्षा से वंचित बच्चे न्यूनतम शुल्क में शिक्षा पा सकें | 



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विनीत कुमार 

आपके मोबाईल या कम्प्यूटर स्क्रीन पर जो यूट्यूबर वन मैन शो वाली पत्रकारिता करते नज़र आते हैं, उन्होंने कैमरा, प्रोडक्शन, एडिंटग एवं रिसर्च जैसे काम के लिए इन्टर्न या सीखने के नाम पर कम पैसे में मीडिया के छात्रों को अवसर देना शुरू कर दिया है. इसका मतलब है कि छोटी ही सही, अब वो अपनी एक टीम बना चुके हैं. बहुत संभव है कि यह टीम आगे चलकर एक मीडिया संस्थान के तौर पर विकसित हो जैसा कि निजी समाचार चैनलों के शुरूआती दौर में आजतक, एनडीटीवी, जी न्यूज़, आगे चलकर तहलका और दि वायर जैसे संस्थानों का विस्तार हुआ.

मेरे पास इस संबंध में फोन आने लगे हैं कि यदि हमें एक तरफ फलां यूट्यूबर मीडियाकर्मी के साथ काम करने का मौक़ा मिल रहा है और दूसरी तरफ कॉर्पोरेट मीडिया की तरफ से ऑफर है, ऐसे में हमें क्या करना चाहिए, आप सुझाव दें ? यह जानकारी देते हुए वो साथ में जोड़ना नहीं भूलते कि कॉर्पोरेट मीडिया में पैसे तो मिल जाएंगे लेकिन जो हाल है, वहां हम पत्रकारिता के नाम पर क्या करेंगे, ये तो आपको भी पता ही है.

यह तो हम अपनी आंखों के सामने देख ही रहे हैं कि जैसे-जैसे समय बीत रहा है, कॉर्पोरेट मीडिया जिसे कि मुख्यधारा मीडिया मानकर देखा-समझा जाता रहा है, पत्रकारिता की गुंजाईश तेजी से ख़त्म होती जा रही है. ऐसे दौर में जबकि मीडिया पूरी तरह दो हिस्सों में बंट चुका हो और दोनों तरफ से अतिरेक दिखाई देते हों, आगे चलकर नागरिकों के सवाल के नाम पर अहं, निजी हित और अपनी बात मनवाने का आग्रह और जोर मारता रहेगा. हालत यह है कि एक बड़ी आबादी है जो रोज़ाना टीवी चैनल देखे या अख़बार पढ़े बिना राय बना चुकी है कि कौन क्या बोलेंगे, कौन क्या लिखेगा और छापेगा ? जिन रिपोर्ट, लेख और कार्यक्रमों को तैयार करने में घंटों लग जाते हों, उन्हें लेकर एक पूर्वग्रह तैयार है, ये पत्रकारिता के लिए बेहद ख़तरनाक स्थिति है. ऐसे में यूट्यूबर अपने स्तर पर जो कुछ भी कर रहे हैं और उन्हें तारीफ़ मिल रही है तो मीडिया के छात्रों के भीतर उनके साथ जुड़ने का आग्रह स्वाभाविक है.


मैं पिछले दस साल से देश के अलग-अलग मीडिया संस्थानों के सैकड़ों मीडिया छात्रों के संपर्क में रहता आया हूं और मेरा अनुभव यह कहता है कि मीडिया के छात्र या नए मीडियाकर्मी दिमाग़ी तौर पर दो खांचे में बंटे होते हैं- एक जिन्हें जल्दी-जल्दी फ्लैट, गाड़ी, सुविधाएं, परिवार, बच्चे...चाहिए और दूसरे जिन्हें ये सब तो चाहिए लेकिन उससे पहले उनके उपर सरोकार, समाज, देशहित, बदलाव आदि की एक परत भी चाहिए. वो परत समाज में यह भरोसा बनाए रखे कि गणेश शंकर विद्यार्थी के वंशज अभी बचे हुए हैं. पहले खांचे के लोग कहीं ज़्यादा स्पष्ट और सपाट होते हैं. उनके लिए मीडिया एक पेशा है, रोज़गार है और जिससे उन्हें सामाजिक और आर्थिक हैसियत दुरूस्त करनी है.


दूसरे खांचे के छात्र-नए मीडियाकर्मी थोड़े कन्फ्यूज्ड रहते हैं. उन्हें भी वो सबकुछ चाहिए जिनकी आलोचना करते हुए उनकी ट्रेनिंग हुई. वो न भी चाहें तो सामाजिक ढांचा है कि देर-सबेर ऐसा सोचने के लिए धकेल दिया जाएगा लेकिन उनकी हसरत इस बात की बराबर बनी रहती है कि पहले उन्हें पत्रकार समझा जाय, सरोकारी माना जाय और उसके भीतर से एक ऐसा अर्थतंत्र बने कि हमारी वो सारी ज़रूरतें और सपने पूरे हों जो पहले खांचे के लोग तेजी से हासिल कर ले रहे हैं. ऐसा सोचने और करने में कोई बुराई नहीं है. जो इंसान पेट और दिमाग़ की ज़रूरतें पूरी नहीं कर सकता, बहुत संभव है कि अपनी तमाम बौद्धिकता और प्रतिभा के बावज़ूद कुंठा या हताशा का शिकार हो जाए. ये सब अंतहीन बातें हैं..

फिलहाल ये कि हमलोग जो आए दिन कॉर्पोरेट मीडिया की कारगुज़ारियों पर लगातार लिखते रहते हैं, नए मीडियाकर्मी या छात्र को करिअर का फैसला उसके हिसाब से नहीं लेना चाहिए. मीडिया संस्थानों से प्रकाशित-प्रसारित सामग्री और मीडियाकर्मियों के साथ व्यवहार अलग चीज़ें हो सकती हैं. ये बहुत संभव है कि जो चैनल दिन-रात जहर उगल रहा हो वो अपने मीडियाकर्मियों को समय पर सैलरी और बाकी सुविधाएं मुहैया करा रहा हो और जो दिन-रात सरोकार की बात करता नज़र आता हो, पत्रकारिता की आड़ में अपने मीडियाकर्मियों का हक़ मारने और निचोड़ने में लगा हो. आप सोशल मीडिया पर लोगों के लिखे पर ग़ौर करेंगे तो हर दूसरा-तीसरा व्यक्ति अंबानी समूह और उसके उत्पाद को कोसता नज़र आएगा लेकिन बात काम करने पर विचार करने की हो तो उसे प्राथमिकी तौर पर महत्व देगा. ऐसा इसलिए कि एक चैनल जो चिट-फंट के धंधे में है, उसके मुक़ाबले वेतन, सुविधा और सुरक्षा की गारंटी यहां ज़्यादा है या हो सकती है. ऐसा कहने का मतलब इनके प्रतिरोध में लिखने से असहमत होना नहीं है, पाठक और मीडियाकर्मी के स्तर पर अलग-अलग ढंग से, अलग-अलग स्थितियों को ध्यान में रखकर सोचने से है. यूट्यूबर के मामले में आप इसी तरह से सोच सकते हैं.


एक पाठक, दर्शक के तौर पर आपको इन यूट्यूबर का काम बहुत पसंद आता है, आपको लगता है कि सच्ची पत्रकारिता ये लोग ही कर रहे हैं. आप इनके साथ रहेंगे तो बहुत कुछ सीखेंगे, इसके बदले में भले ही आपको किसी तरह का आर्थिक सहयोग न मिल रहा हो या कम मिल रहा हो. लेकिन यहां पर आपको एक बात गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है और वो यह कि इन्हें लेकर पत्रकारिता के जो जज़्बात पैदा हो रहे हैं, वो सुरक्षित रह पाएगा ? वो यूट्यूब कंटेंट के अलावा अपने व्यवहार में इतने उदार, लोकतांत्रिक और खुले दिल के हैं कि आपको आगे जाने के भरपूर मौक़ा दें ? मैं ऐसे चमकीले यूट्यूबर मीडियाकर्मी की वीडियो से जब भी गुज़रता हूं, इस बात पर ख़ासतौर पर ग़ौर करता हूं कि वो शुरू में या आख़िर में किस-किसको क्रेडिट देते हैं, किसके काम की चर्चा करते हैं ?

मेरी अपनी समझ है कि एक दर्शक-पाठक के तौर पर ये यूट्यूबर मीडियाकर्मी हमारी ज़रूरतें पूरी कर रहे हैं, इस लिहाज़ से इनके प्रति हमारे मन में गहरा सम्मान है. इनका ये हौसला बरक़रार रहे. लेकिन यही बात मैं इनके साथ जुड़कर काम करने के संदर्भ में नहीं सोच सकता. वो इसलिए कि जब भी कारोबारी मीडिया का मुक़्कमल इतिहास लिखा जाएगा, ये सबके सब उसी कटघरे में शामिल होंगे जिसकी शिकायत आज वो कर रहे हैं. आप शायद भूल गए होंगे, मैं यह बात कभी नहीं भूल सकता कि सौ करोड़ की कथित दलाली मामले में जी न्यूज के संपादक की गिरफ़्तारी होने पर तब इसी एक यूट्यूबर मीडियाकर्मी ने जो तब इस चैनल का फ्लैगशिप कार्यक्रम पेश किया करते, कहा- ये भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में काला दिन है, ये आपातकाल है पता नहीं आगे क्या स्थिति बनी कि चैनल से अलग हो गए. क्या उन्हें पता नहीं था कि आपातकाल का मतलब क्या होता है और संपादक पर किस बात का आरोप है ? आप ग़ौर करेंगे तो एक-एक करके सबके साथ एक लंबी फ़ेहरिस्त आपको जुड़ी मिलेगी जिसमें कि बचाव और पर्दा डालने का काम लोकतंत्र के नाम पर होता रहा जबकि उसके पीछे एक स्पष्ट व्यावसायिक कारोबारी हित था. इस मामले में मेरी समझ बिल्कुल साफ है कि नए माध्यम के तौर पर यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म का चयन कुछ कर गुज़रने से कहीं ज़्यादा नए व्यावसायिक मॉडल की खोज है.

शागिर्दी बेहद ख़ूबसूरत चीज़ है. शास्त्रीय संगीत और दूसरी कलाओं में अभी भी सीखने-समझने का सबसे बेहतर तरीका यही है कि किसी उस्ताद के साथ हो लो. वो जो आपको सिखा-बता जाएंगे, उसके आगे संस्थान की पढ़ाई बहुत पीछे हैं..लेकिन मीडियाकर्मियों के चमकीले चेहरे को देखकर शागिर्द होने से पहले इस सिरे से विचार करना उतना ही ज़रूरी है कि जिस लोकतंत्र और आज़ाद ख़्याल की बात वो स्क्रीन पर किया करते हैं, वो उसे बर्दाश्त भी कर पाते हैं ?

बिना लागलपेट के आप मुझसे पूछेंगे तो मैं यदि आपकी जगह रहूं और मेरे सामने जी न्यूज, इंडिया टीवी, आजतक में काम करने का अवसर हो और यूट्यूबर के साथ जुड़कर सरोकारी पत्रकारिता करने का ऑफर तो मैं बिना हिचक के जी न्यूज, इंडिया टीवी या आजतक से जुड़ना पसंद करूंगा. यह जानते हुए कि यहां पत्रकारिता नहीं होती लेकिन वहां इस बात की दुविधा भी नहीं होगी कि हम पत्रकारिता कर रहे हैं या फिर जन सरोकार. एक मीडिया छात्र या नए मीडियाकर्मी के तौर पर मैं तब भी इन संस्थानों में बहुत कुछ ऐसा सीख पाऊंगा जो यूट्यूबर के साथ जुड़कर संभव नहीं. मुझे इस बात का यकीं ही नहीं होगा कि ये हमें संभावनाओं से भरा एक मीडियाकर्मी के तौर पर हमें देखना बर्दाश्त कर पाएंगे. सलाह देने की स्थिति में तो मैं कभी नहीं होता लेकिन हां

यह ज़रूर है कि यूट्यूबर जो अनुभव लेकर कारोबारी मीडिया से अलग होकर नया व्यावसायिक मॉडल खोज रहे हैं, नए मीडियाकर्मी पहले कारोबारी मीडिया के अनुभव से गुज़रते हैं तो आगे उनके भीतर कम से कम दुविधा होगी. चीज़ों से एकदम मोहभंग हो जाना और वो भी बिना अनुभव के ही, अच्छी स्थिति नहीं होती. आख़िर वो भी आज यूट्यूब के ज़रिए पत्रकारिता इसलिए कर पा रहे हैं कि कॉर्पोरेट मीडिया में सालोंसाल काम करते हुए आर्थिक-सामाजिक मोर्चे पर एक सुरक्षित ढांचा खड़ा कर लिया है. वो इस काम में असफल भी होते हैं तो जीविकोपार्जन के स्तर पर कोई संकट नहीं होगा जबकि एक नए मीडियाकर्मी के लिए तो कमरे के किराये से लेकर ढाबे का खाना, कपड़े, राह खर्च सब इसी पत्रकारिता से जुटाने होंगे.



(साभार विनीत कुमार की फेसबुक वाल से)



कौन थीं Mother's Day की संस्थापक Anna Jarvis

  • नाम: अन्ना मारिया जार्विस
  • जन्मी: 1 मई, 1864 वेबस्टर, टेलर काउंटी, वेस्ट वर्जीनिया, यू.एस.
  • निधन: 24 नवंबर, 1948 (आयु 84 वर्ष) वेस्ट चेस्टर, पेंसिल्वेनिया, यू.एस.
  • के लिए जाना जाता है: अमेरिकन मदर्स डे के संस्थापक

मातृ दिवस समारोह के पीछे की कहानी

1800 के उत्तरार्ध में अन्ना जार्विस ग्रैटन, वेस्ट वर्जीनिया में बड़े हुए। वह 11 बच्चों में से एक थी, लेकिन वयस्क होने के लिए रहने वाले बच्चों में से सिर्फ चार में से एक। सबसे पुरानी बेटी के रूप में, उसने अपनी माँ के साथ एक करीबी रिश्ता साझा किया। अन्ना ने अक्सर अपनी माँ को पत्र लिखे और दिल की स्थिति विकसित होने के बाद उनका ख्याल रखा। 1905 में उसकी मृत्यु हो गई।

उसकी माँ की मृत्यु के कारण जार्विस ने अपने जीवन को छुट्टी के लिए समर्पित कर दिया, जिसे अब अंतर्राष्ट्रीय मातृ दिवस के रूप में मान्यता दी गई है।

अन्ना जार्विस - मदर्स डे के संस्थापक

एक मुद्रित कार्ड का मतलब कुछ भी नहीं है सिवाय इसके कि आप उस महिला को लिखने के लिए बहुत आलसी हैं जिसने दुनिया में किसी से भी ज्यादा आपके लिए किया है। और कैंडी आप माँ के लिए एक बॉक्स लेते हैं और फिर इसे स्वयं खाते हैं। एक सुंदर भाव।
ये शब्द मदर डे के संस्थापक एना जार्विस के मुंह से आए थे।

एना मैरी जार्विस का जन्म 1 मई, 1864 को वेबस्टर, वेस्ट वर्जीनिया में हुआ था। ऐतिहासिक रिकॉर्ड के अनुसार, कम उम्र में, अन्ना ने अपनी माँ को यह उम्मीद करते हुए सुना कि सभी माताओं, जीवित और मृत लोगों के लिए एक स्मारक स्थापित किया जाएगा। अन्ना की माँ, श्रीमती अन्ना एम। जार्विस ने "मदर्स फ्रेंडशिप डे" विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जो गृह युद्ध की चिकित्सा प्रक्रिया का हिस्सा था। श्रीमती जार्विस ने गृहयुद्ध की शुरुआत से पहले स्वास्थ्य और स्वच्छता प्रथाओं और स्थितियों में सुधार के लिए वेबस्टर, ग्राफ्टन, फ़ेट्टरमैन, प्रुनटाउन और फिलिपी (वेस्ट वर्जीनिया) में मदर्स डे वर्क क्लबों का एक समूह स्थापित किया था। गृहयुद्ध, श्रीमती अन्ना जार्विस ने मदर्स डे वर्क क्लबों से अपनी निष्पक्षता की घोषणा करने और संघ और संघि सैनिकों दोनों की मदद करने का आग्रह किया। क्लबों ने घायल और तंग और कपड़े पहने सैनिकों का इलाज किया जो क्षेत्र में तैनात थे। 

युद्ध के अंत के पास, जार्विस परिवार पश्चिम वर्जीनिया के ग्रैटन शहर में चला गया। स्वाभाविक रूप से, जैसा कि युद्ध के दौरान दोनों पक्षों में वेस्ट वर्जीनिया ने लड़ाई लड़ी (राज्य 1864 में संघ में शामिल हुआ, युद्ध से पहले वर्जीनिया का हिस्सा था), सैनिकों के घर लौटने पर बहुत तनाव था। 1865 की गर्मियों में, अन्ना जार्विस ने सभी राजनीतिक विश्वासों के सैनिकों और पड़ोसियों को एक साथ लाने के लिए प्रुनटाउन शहर के प्रांगण में एक मदर्स फ्रेंडशिप डे का आयोजन किया। यह आयोजन पूरी तरह से मित्रता और शांति को बढ़ावा देने वाला था। कई वर्षों के लिए माताओं की मित्रता दिवस एक वार्षिक कार्यक्रम बन गया।

1902 में अपने पिता की मृत्यु के बाद, अन्ना-अपनी मां और बहन लिली के साथ - लिली - अपने भाई, क्लाउड के साथ रहने के लिए फिलाडेल्फिया चली गई। उसके बाद उसकी माँ की मृत्यु हो गई। जब 9 मई, 1905 को श्रीमती जार्विस का निधन हुआ, तो उनकी बेटी अन्ना का सम्मान करने का संकल्प लिया गया। उसने यह भी महसूस किया कि भले ही अमेरिका एक मेहनती, औद्योगिक राष्ट्र था, लेकिन उसकी पीढ़ी के वयस्क बच्चे अपने माता-पिता के इलाज में लापरवाही करने लगे थे।

1907 में, मिस अन्ना ने राष्ट्रीय मातृ दिवस की स्थापना के लिए एक अभियान शुरू किया। एना ने उसी साल 12 मई को एंड्रयूज मेथोडिस्ट चर्च में अपनी माँ को एक छोटी सी श्रद्धांजलि अर्पित की, माँ की मृत्यु की दूसरी वर्षगांठ। यह उस क्षण से था जब उसने अपना जीवन राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मातृ दिवस की स्थापना के लिए समर्पित कर दिया था। अगले वर्ष तक मातृ दिवस भी अपने ही शहर फिलाडेल्फिया में मनाया गया।

मिस जार्विस और उनके समर्थकों ने राष्ट्रीय मातृ दिवस की स्थापना के लिए धर्मयुद्ध में मंत्रियों, इंजीलवादियों, व्यापारियों और राजनेताओं को लिखना शुरू कर दिया। यह अभियान सफल रहा। 1911 तक, मदर्स डे लगभग हर राज्य में संघ में मनाया जाता था। 1914 में, राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने मदर्स डे को राष्ट्रीय अवकाश घोषित करने की आधिकारिक घोषणा की, जो प्रत्येक वर्ष मई के दूसरे रविवार को आयोजित की जाती थी।

अन्ना जार्विस की एक-महिला धर्मयुद्ध की अक्सर इतिहास की पुस्तकों में अनदेखी की जाती है। 1900 के दशक की शुरुआत में महिलाएं कई अन्य सुधार प्रयासों में लगी हुई थीं कि मातृ दिवस के पीछे के इतिहास को अक्सर उपेक्षित किया जाता है। लेकिन यह संभावना है कि यह अन्य सुधार और महिलाओं के लिए खोले गए रास्ते थे जिन्होंने अन्ना जार्विस को मातृ दिवस के लिए अपने अभियान में सफल होने का मार्ग प्रशस्त किया।

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि, जबकि मिस जार्विस ने अपने वयस्क जीवन का अधिकांश समय माताओं को सम्मानित करने के लिए एक विशेष दिन बनाने के प्रयास में बिताया था, अंत में, वह जिस तरह से मदर्स डे निकला उससे निराश थी। जैसे-जैसे छुट्टी की लोकप्रियता बढ़ती गई, वैसे-वैसे इसका व्यवसायीकरण भी हुआ। जिस दिन उसने भावुकता के दिन के रूप में इरादा किया था वह जल्दी ही लाभ के दिन में बदल गया। अंत में, अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले, अन्ना जार्विस ने एक रिपोर्टर से कहा कि 'उसे खेद है कि उसने कभी भी मदर्स डे की शुरुआत की।'

जूलिया वार्ड होवे (27 मई, 1819 - 17 अक्टूबर, 1910) एक अमेरिकी कवि और लेखक थे, जिन्हें "द बैटल हाइमन ऑफ़ द रिपब्लिक" और मूल 1870 शांतिवादी मातृ दिवस उद्घोषणा लिखने के लिए जाना जाता था। वह उन्मूलनवाद की पैरोकार और सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं, विशेषकर महिलाओं के मताधिकार के लिए।

एन मारिया रीव्स जार्विस (30 सितंबर, 1832 - 9 मई, 1905) अमेरिकी नागरिक युद्ध के दौर में एक सामाजिक कार्यकर्ता और सामुदायिक आयोजक थे। उन्हें उस माँ के रूप में पहचाना जाता है जिन्होंने मदर्स डे को प्रेरित किया और मदर्स डे आंदोलनों के संस्थापक के रूप में, और उनकी बेटी, अन्ना मैरी जार्विस (1864-1948) को संयुक्त राज्य में मातृ दिवस की छुट्टी के संस्थापक के रूप में मान्यता प्राप्त है।

1908 की शुरुआत में, वनामेकर ने अन्ना जार्विस के अभियान के लिए राष्ट्रीय मातृ दिवस की छुट्टी को आधिकारिक तौर पर मान्यता देने के लिए वित्तपोषित किया। 8 मई, 1914 को, अमेरिकी कांग्रेस ने मई में दूसरे रविवार को मदर्स डे के रूप में नामित करने वाला एक कानून पारित किया, जो बाद में अंतर्राष्ट्रीय अवकाश भी बन गया। जार्विस और वानानमेकर को सम्मानित करने वाला एक पेंसिल्वेनिया ऐतिहासिक मार्कर फिलाडेल्फिया सिटी हॉल में, वानमाकर की दुकान से सड़क के पार स्थित है, जहां जल्द से जल्द मातृ दिवस समारोह आयोजित किए गए थे।

1924 में पूर्व न्यूयॉर्क गवर्नर अल स्मिथ की माँ को प्यार करने वालों ने उन पर फूल (और अमेरिकी झंडे) से नवाज़ा ("हमारे प्यारे पाल अल की प्यारी माँ")। फूल 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में छुट्टी की शुरुआत के बाद से माताओं के लिए पसंद का उपहार रहा है। पहली आधिकारिक मातृ दिवस सेवाएं 10 मई, 1908 को ग्राफ्टन, वेस्ट वर्जीनिया और फिलाडेल्फिया, पेंसिल्वेनिया में आयोजित की गईं। मातृत्व के लिए यह श्रद्धांजलि अन्ना जार्विस द्वारा स्थापित की गई थी, जिन्होंने मई में अपनी मां की मृत्यु के उपलक्ष्य में दूसरा रविवार चुना और सफेद कार्नेशन, प्यार और पवित्रता के साथ-साथ अपनी दिवंगत मां के पसंदीदा फूल का प्रतीक भी चुना, जो छुट्टी का आधिकारिक प्रतीक था। 9 मई, 1914 को, राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने एक राष्ट्रपति घोषणा की, जिसने मातृ दिवस को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में स्थापित किया, "हमारे देश की माताओं के लिए प्यार और श्रद्धा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति के रूप में।" आज अपने जीवन में माँ को बताना न भूलें कि आपको क्या परवाह है!
मातृ दिवस का इतिहास: 9 मई, 1914 को, राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने मई में दूसरे रविवार को मातृ दिवस के रूप में "हमारे देश की माताओं के लिए प्यार और श्रद्धा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति के रूप में घोषित किया।" "वुडरो विल्सन, पोर्च पर झूले पर बैठे, सामने की ओर, अपनी पत्नी एलेन लुईस एक्ससन विल्सन (1860-1914) और तीन बेटियों, मार्गरेट वुडरो विल्सन (1886-1944), जेसी वुडरो विल्सन (1887-1933), और एलेनोर रैंडोल्फ विल्सन (1889-1967) लगभग 1912. फोटो: लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस।

"मदर्स डे" के विचार का श्रेय जूलिया वार्ड होवे (1872) और दूसरों के द्वारा अन्ना जार्विस (1907) को दिया जाता है, जिन्होंने दोनों को शांति के दिन के लिए समर्पित एक छुट्टी का सुझाव दिया था। 1911 तक कई अलग-अलग राज्यों ने मदर्स डे मनाया, लेकिन 1914 में विल्सन ने कांग्रेस की पैरवी नहीं की, लेकिन मदर्स डे आधिकारिक तौर पर हर मई के दूसरे रविवार को निर्धारित किया गया था। अपने पहले मातृ दिवस उद्घोषणा में, विल्सन ने कहा कि छुट्टी ने "हमारे देश की माताओं के लिए हमारे प्यार और श्रद्धा" को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने का मौका दिया। " 



Wednesday, May 10, 2023

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस के अवसर पर विद्यालयों का भ्रमण कार्यक्रम

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद, उ0प्र0 द्वारा गुरुवार को टेक्नोलॉजी दिवस के अवसर पर राजकीय विद्यालयों के कक्षा-9-12 के विद्यार्थियों का वैज्ञानिक संस्थानों का भ्रमण कार्यक्रम परिषद द्वारा आयोजित किया गया। 

उक्त भ्रमण कार्यक्रम में परिषद 100 विद्यार्थियों को राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एन0बी0आर0आई) एवं राष्ट्रीय मत्स्य आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (एन0बी0एफ0जी0आर0) का भ्रमण परिषद द्वारा कराया गया। उक्त कार्यक्रम में राजकीय जुबिली इण्टर कालेज, लखनऊ, राजकीय कन्या इण्टर कालेज, छोटी जुबिली, रामाधीन सिंह इण्टर कालेज, करामत गर्ल्स इंटर कॉलेज तथा सेंट मैरी इंटर कॉलेज, बुद्धेश्वर पारा  के वि़द्यार्थियों द्वारा प्रतिभाग किया गया। प्रत्येक विद्यार्थियों के समूह के साथ सम्बन्धित अध्यापक भी भ्रमण कार्यक्रम में प्रतिभाग किए । परिषद द्वारा विद्यार्थियों के परिवहन एवं जलपान इत्यादि की व्यवस्था की गई। प्रतिभाग करने वाले सभी विद्यार्थियों को प्रतिभागिता प्रमाण पत्र भी परिषद द्वारा प्रदान किया गया । विद्यार्थियों द्वारा संस्थानों के वैज्ञानिकों से अपने मन में उठ रहे हर सवाल को पूछा और वैज्ञानिकों ने भी हर प्रश्न को सरल भाषा में समझाया । आयोजक के रुप में परिषद से संयुक्त निदेशक गणों में डा0 हुमा मुस्तफा, डाo डीo केo श्रीवास्तव, आईo डीo राम, इनोवेशन ऑफिसर, संदीप द्विवेदी ने इस कार्यक्रम का आयोजन करवाया , सभी विद्यार्थियों और अध्यापकों द्वारा कार्यक्रम को सराहा गया ।


पंचनद क्रिकेट चैंपियनशिप के दूसरे दिन दिखा कंजौसा टीम के बल्लेबाजों का जलवा

पंचनद: चंबल के बीहड़ों में चंबल विद्यापीठ परिवार द्वारा आयोजित ‘पंचनद क्रिकेट चैंपियनशिप’ के दूसरे दिन दो मुकाबले खेले गए। पहले सत्र में हिम्मतपुर और कंजौसा की टीमों के बीच मैच हुआ। कंजौसा टीम ने टास जीतकर गेंदबाजी का फैसला लिया। बल्लेबाजी करने उतरी हिम्मतपुर टीम 12 ओवर में 8 विकेट के नुकसान से 84 रन बनाए। हिम्मतपुर टीम के खिलाड़ी संदीप ने सर्वाधिक 17 रन बनाए। 

जवाब में उतरी कंजौसा टीम ने 9.3 ओवर में ताबड़तोड़ बल्लेबाजी करते हुए 3 विकेट के नुकसान पर 85 रन बनाकर जीत हासिल की। कंजौसा टीम के मुकेश ने सर्वाधिक 32 रन बनाए। कंजौसा टीम के खिलाडी अमित 14 रन बनाकर और 2 विकेट लेकर मैन आफ द मैच रहे। आयोजन समिति से जुड़े अशर्फी पाल और कपिल तिवारी ने अमित को ट्राफी प्रदान की। 

दूसरी पाली में निनावली और माधौगढ़ टीमों के बीच मुकाबला हुआ। इन मैचों में एम्पायर की जिम्मेदारी शशिकांत और सुरजीत ने निभाई। स्कोर बुक आशीष दुबे ने संभाली। 

यह प्रतियोगिता 1857 के क्रांतिकारियों की स्मृति में हो रही है। दूसरे दिन की शुरुआत कराते हुए क्रांतिकारी लेखक डॉ शाह आलम राना ने चंबल अंचल के इटावा जनपद में 1857 के महान क्रांति योद्धा गंधर्व सिंह चौहान का जिक्र करते हुए कहा कि वे इटावा जिले के यमुना-चंबल दोआबा के राजपुर गांव के निवासी थे। क्रांतिवीर गंधर्व सिंह 1857 की क्रांति में उन्होंने प्रारंभ से लेकर अक्टूबर 1858 तक सक्रिय भागीदारी की। 1858 में जिस समय उन्हें 10 वर्ष का कारावास का दण्ड देकर कालापानी भेजा गया, उस समय उनकी आयु 57 वर्ष थी। वे अनेकों युद्धों में परखे हुए वीर थे। उन्होंने निरंजन सिंह चौहान के साथ कानपुर, भोगिनीपुर, चरखारी, कालपी, ग्वालियर आदि के युद्धों में अपना कौशल दिखाया था। 13 दिसम्बर 1857 को क्रांतिकारियों ने जब इटावा पर अधिकार किया था, उस समय उस लड़ाई में उनकी अग्रिम भूमिका रही। गोहानी, चकरनगर, सहसों की लड़ाईयों में भी उन्होंने बड़ा पराक्रम दिखाया था। उनके खिलाफ प्रकरण में निर्णय देते हुए ह्यूम ने लिखा कि अपने गांव राजपुर को 50 मील के घेरे में अंग्रेजी फौजों के खिलाफ लड़े गए हर युद्ध में हिस्सा लिया।

देशवासियों के लिए क्यों विशेष है 11 मई का राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस

सुमित कुमार श्रीवास्तव - वैज्ञानिक अधिकारी

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस (National Technology Day) हर साल 11 मई को भारत में मनाया जाता है, जिसे शक्ति की वर्षगांठ के रूप में मनाया जाता है। ये दिन भारत की बड़ी उपलब्धियो को याद दिलाता है। 11 मई को राजस्थान के पोखरण परीक्षण श्रृंखला में भारत ने दूसरी बार सफलतापूर्वक परमाणु परीक्षण किया था। इस ऑपरेशन का नेतृत्व डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने किया था और इसे ऑपरेशन शक्ति या पोखरण-2 कहा जाता है। इस उपलब्धि को चिह्नित करने के लिए ही इस दिन को मनाया जाता हैं। उस समय देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। दो दिन बाद देश में दो और परमाणु हथियारों का परीक्षण हुआ। इस परीक्षण के साथ ही भारत दुनिया के उन छह देशों में शामिल हो गया, जिनके पास परमाणु शक्ति है। इसी वजह से 11 मई को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस मनाया जाता है। इसके अलावा कई और अहम तकनीकी क्रांति इसी दिन संभव हुई थी। 

Image Source :- INDIA TV


ऑपरेशन शक्ति के तहत राजस्थान में भारतीय सेना के पोखरण परीक्षण रेंज में तीन सफल परमाणु परीक्षणों के बाद 11 मई 1998 को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस का जश्न शुरू हुआ। पोखरण परमाणु परीक्षण की सफलता भारत की सुरक्षा व्यवस्था के लिए ब्रह्मास्त्र मिलने जैसा था. भारतीय इतिहास में इस दिन का विशेष महत्व है।

डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम के नेतृत्व में भारत के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन ने भी इसी दिन स्वदेशी विमान हंस-3 का सफल परीक्षण किया था। हंस-3 को नेशनल एयरोस्पेस लैबोरेटरी ने बनाया था। वह दो सीटों वाला हल्का विमान था। इसका इस्तेमाल पायलटों को प्रशिक्षण देने, हवाई फोटोग्राफी, निगरानी और पर्यावरण से संबंधित परियोजनाओं के लिए होता है।

1 मई 1998 को ही रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) ने त्रिशूल मिसाइल का आखिरी परीक्षण किया था। फिर उस मिसाइल को भारतीय वायुसेना और भारतीय थलसेना में शामिल किया गया था। त्रिशूल जमीन से हवा में मार करने वाले मिसाइल है। यह छोटी दूरी की मिसाइल है।

इसी अवसर पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद , उ0प्र0 के संयुक्त निदेशक श्री आई0डी0 राम द्वारा बताया गया कि परिषद द्वारा प्रत्येक वर्ष तकनीक को बढ़ावा देने के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। इस वर्ष राजकीय विद्यालयों के कक्षा-9-12 के विद्यार्थियों का वैज्ञानिक संस्थानों का भ्रमण कार्यक्रम परिषद द्वारा आयोजित किया जा रहा है जो कि एक अलग प्रकार का शैक्षणिक कार्यक्रम होगा | 


Tuesday, May 9, 2023

द सोशल डेलिमा फिल्म समीक्षा

लेखक : प्रखर श्रीवास्तव 

इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म में 2011 और 2012 में फेसबुक के साथ रहे लोग, जैसे इंस्टाग्राम के शुरुआती कर्मचारी , गूगल और यूट्यूब के कर्मचारी, मोज़िला लैब शुरू कर फायर फॉक्स में जाने वाले कर्मचारी तथा 5 साल तक फेसबुक में डायरेक्टर ऑफ मोनेटाइजेशन रहे व्यक्ति , गूगल ड्राइव फेसबुक चैट और माइक बटन बनाने वाले शुरुआती व महत्वपूर्ण सेवा प्रदाताओं का महत्वपूर्ण इंटरव्यू किया है जिन्होंने नैतिक मूल्यों की चिंता और डर के चलते नौकरियां छोड़ी उनके बयान तकनीकी दुनिया की नई नज़र को पेश करने के साथ ही उसका नकारात्मक पक्ष भी प्रभावी रूप से बतलाते हैं |

2 घंटे की इस फिल्म के शुरुवाती दृश्यों में पुस्तक “Ten Arguments for deleting your social media accounts RIGHT NOW” के लेखक जारोन लानियर सवाल उठाते दिखते हैं कि गूगल और फेसबुक अब तक की सबसे कामयाब कंपनियों में से एक है, दूसरों के मुकाबले उनके मुलाजिम कम हैं | उनका एक बड़ा कंप्यूटर पैसे बटोरता है - तो अहम सवाल ये कि इन्हें पैसे दिए क्यों जाए ?”

फ़ायर फॉक्स और मोजेला के पूर्व सहयोगी अज़ा रस्किन का मुफ्त विज्ञापन को लेकर डायलॉग If you're not paying for the product then you are the product अत्यंत प्रभावी था |

फ़ेसबुक और गूगल के पूर्व इंजीनियर जस्टिन रोसेनस्टेन अपने वक्तव्य में कहते हैं कि इंटरनेट पर मौजूद कुछ सेवाएं लगता है कि मुक्त हैं पर वो मुफ्त नहीं होती उन्हें विज्ञापन से पैसा मिलता है | विज्ञापनदाता पैसे इसलिए देते हैं क्योंकि वह चाहते हैं कि बदले में विज्ञापन हमें दिखाया जाए, मतलब विज्ञापनों को हमारा ध्यान बेचा जाता है | अगर आप कहें कि मैं एक करोड़ डॉलर दो तो मैं दुनिया को तुम्हारी इच्छा की दिशा में 1% बदल दूंगा, तो यह मुमकिन है |”

 

फिल्म में सिनेमैटोग्राफी विशेषज्ञों के साथ साक्षात्कारों का मिश्रण है और सोशल मीडिया एल्गोरिदम कैसे काम करती है, इसको नाटकीयता  के साथ प्रस्तुत किया गया है। साक्षात्कारों के बेहतर शूट के लिए संभवत: कैमरा वर्क और स्टैटिक शॉट्स का प्रयोग किया गया है जो कि बिना तकनीकी जानकारी रखने वाले व्यक्तियों के बिना नहीं किया जा सकता |

पूरी फिल्म साक्षात्कार कि शैली में फिल्मायी गई है, एक दृश्य में दिखाया गया है कि एक परिवार खाने की मेज के आसपास इकट्ठा होता है, प्रत्येक सदस्य अपने फोन में तल्लीन रहता है, जबकि उनका खाना ठंडा हो जाता है। कैमरा फोन के क्लोज-अप पर टिका रहता है, जो कि तकनीकी लत के प्रति सामाजिक जुड़ाव को दिखाता है, इस तरह से फिल्म का संदेश पहुंचाने में सिनेमैटोग्राफी ने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया है |

फिल्म में ट्विटर के पूर्व कर्मी जेफ़ सेबेर्ट अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं कि लोग इंटरनेट पर जो भी करते हैं उस पर एक नजर है, जो कि पैमाना नापने का काम करती है | आप की हर हरकत को ध्यान से जांच कर रिकॉर्ड किया जाता है, आप किस तस्वीर या वीडियो पर ठहर कर उसे कितनी देर देखते हैं सब का रिकॉर्ड रखा जाता है, उन्हें पता है लोग कब अकेला महसूस करते हैं और कब उदास हैं, देर रात तक क्या करते हैं |”

जिसका समर्थन करते हुए फेसबुक के पूर्व संचालन प्रबन्धक सैंडी पार्किल्स कहते हैं कि आपकी मानसिक तकलीफ से लेकर आपके व्यक्तित्व तक की हर बारीक जानकारी ऐसी मशीनों को खिलाई जाती है जिन्हें ना के बराबर इंसान चलाते हैं और इनकी भविष्यवाणियां बेहतर होते जाती हैं जैसे कि हम क्या करने वाले हैं और हम कौन हैं ?”

 

फिल्म में एडिटिंग और साउंड इफैक्ट का प्रयोग प्रभावी रूप से किया गया है , जो कि फिल्म के समग्र संदेश को बेहतर रूप से दर्शकों तक पहुँचाने में सफल सिद्ध होता है | गंभीर विचारों को आकर्षक रूप में ढालने के लिए एडिटिंग और साउंड इफैक्ट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है जिसके माध्यम से जटिल विचार भी सहज रूप से जनता तक पहुँच पाते हैं | फिल्म का साउंड खुशी, दुख और चिंताजनक दृश्यों का साथ देने में कोई भी कोताही करता नहीं दिखता है|

इस फिल्म में कोई पारंपरिक अभिनय शामिल नहीं है। हालांकि, फिल्म में प्रौद्योगिकी और सोशल मीडिया के क्षेत्र में कई विशेषज्ञ शामिल हैं, जिनका फिल्म के दौरान साक्षात्कार किया जाता है। निर्देशन जेफ ओर्लोव्स्की द्वारा किया गया जो चेज़िंग आइस और चेज़िंग कोरल जैसी पर्यावरणीय फिल्मों के लिए जाने जाते हैं |

फिल्म सोशल मीडिया के हानिकारक प्रभावों, विशेष रूप से मानसिक, स्वास्थ्य और लोकतंत्र पर फिल्म पर अपने चिंतनीय संदेश को संप्रेषित करने में सफल दिखाई देती है |