Saturday, June 24, 2023

गणेश शंकर विद्यार्थी के विचार (132वीं जयंती पर विशेष)



लेखक परिचय : डॉ राकेश शुक्ल (1967) विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म महाविद्यालय , कानपुर के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं | प्रो. शुक्ल के 100 से अधिक शोध पत्र और समीक्षा आलेख राष्ट्रीय शोध पत्रों में प्रकाशित हो चुके हैं तो वहीं 24 शोध पत्र पुस्तकों का हिस्सा हैं तथा उन्होंने 16 विद्यार्थियों का शोध निर्देशन तथा 21 विद्यार्थियों के लघु शोध का निर्देशन भी किया है | उन्होंने दर्जनों विषयों पर आकाशवाणी लखनऊ से अपने विचार रखने के साथ ही निरंतर तमाम पत्र-पत्रिकाओं के साथ न सिर्फ लेखन बल्कि सम्पादन का कार्य भी किया तथा तमाम पुस्तकों की समीक्षा और भूमिकाएँ लिखीं |

राष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रखर व्याख्यान के लिए जाने जाने वाले  प्रो. राकेश ने "जलता रहे दिया" (कविता संग्रह), "उनकी सृष्टि अपनी दृष्टि" जैसी तमाम पुस्तकें लिखीं जो कि पाठकों के बीच खूब लोकप्रिय हुईं | शिक्षण कार्य में सक्रिय प्रो. राकेश शुक्ल विभिन्न विश्वविद्यालयों में पी-एच०डी० के परीक्षक तथा विषय विशेषज्ञ एवं चयन समिति का हिस्सा हैं | डॉ शुक्ल को अब तक 'इनोवेशन लीडरशिप एवार्ड' (पं० बंगाल के राज्यपाल श्री केसरी नाथ त्रिपाठी द्वारा) , 'साहित्य सेवा सम्मान' (भारत के राष्ट्रपति, तत्कालीन राज्यपाल बिहार- श्री रामनाथ कोविन्द द्वारा) तथा जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय युवा केंद्र के "साहित्य श्री सम्मान" (गुजरात के राज्यपाल श्री ओपी कोहली द्वारा) जैसे तमाम सम्मानों द्वारा नवाज़ा जा चुका है | 



विद्यार्थी जी के विचार 

विद्यार्थी जी के कुछ निबन्धों के आधार पर हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि उनकी दृष्टि कितनी व्यापक थी, उनका उद्देश्य कितना महान था। देश की स्वाधीनता और राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए उनका लेखकीय योगदान कितना महत्वपूर्ण है, जिसकी चर्चा सामान्यतः कम ही हुई है।


विद्यार्थी जी का लम्बा आलेख ‘जेल-जीवन की झलक’ आज के प्रत्येक विद्यार्थी को अवश्य पढ़ना चाहिए। यह सिर्फ एक आलेख न होकर देश की आजादी के लिए संघर्षरत वीर, स्वातंत्र्य सेनानियों के कष्टों एवं संघर्षों की ऐसी महागाथा है, जिसे पढ़ते हुए हम उन पर गर्व करते हैं, तो दुःख के सागर में डूबते उतराते भी हैं। एक अंश के विचार और भाषा द्रष्टव्य है, ‘‘जहाँ जंजीरें खनक रही हों, काल कोठरी का अँधेरा हो, जहाँ बात-बात पर तिरस्कार और मारामार हो, जहाँ पग-पग पर फटकार और प्रहार पर प्रहार हो, जहाँ मनुष्यता को रौंद डालने का विचार काम करता हो, जहाँ मनुष्यों को निकृष्ट प्राणी की भाँति रहना वांछनीय हो, जहाँ खाने के लिए मिट्टी मिला आटा और कंकड़ मिली दाल हो, पहनने के लिए जूं भरे फटे कम्बल और लज्जा का भी निवारण न कर सकने योग्य वस्त्र हों, जहाँ हमारे पथ के पथिक, हमारे साथी, हमारे सखा, हमारे दोस्त, हमारे प्यारे भाई, हमारे अपने, एक नहीं, दो नहीं, दस नहीं, सौ नहीं, हजारों की तादात में..............।’’

डायरी और संस्मरण की समन्वित शैली से युक्त यह निबन्ध आजादी के उन दीवानों का रोजनामचा भी है, जो कैदी जीवन बिता रहे थे। महात्मा गाँधी के आह्वान पर जिन दिनों असहयोग आन्दोलन अपने चरम पर था, उन दिनों आजादी के दीवानों की कमी न थी, फिर भी समाज के अनेक लोग ऐसे थे जो उन्हें उपेक्षा और तिरस्कार से देखते थे। उनका मानना था कि ये लोग किसी दूसरी दुनिया के हैं जो उन अंग्रेजों से आजादी माँग रहे हैं, जिनके साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता। ऐसे लोगों के विषय में वे बड़े आहत भाव से लिखते हैं, ‘‘कानपुर जाने वाली गाड़ी की ओर बढ़़ रहे थे कि इतने में ‘वंदे मातरम्’, ‘महात्मा गाँधी की जय’ की ध्वनि कानों में पड़ी। नजर घुमाकर देखने पर, स्टेशन को पार करने वाले पुल के जीने पर पुलिस के गार्ड के बीच अनेक युवक चलते हुए दिखाई पड़े, जिनके पैरों में बेड़ियाँ थीं। एक प्रकार से उनके हाथ-पैर बँधे हुए थे। परन्तु तो भी जुबान और जुबानों से बढ़कर हृदय खुले हुए थे। उन्होंने जय बोली। माता की वंदना की। .... परन्तु युवकों के कण्ठ से निकली आवाज स्टेशन की दीवारों से टकराकर रह गई।... लोग चुपचाप उन्हे देखते रहे। मानों वे एक तमाशा देखते थे। मानों वे एक जुलूस देखते थे।’’

इस आलेख के माध्यम से विद्यार्थी जी ने न सिर्फ उन स्वातंत्र्य सेनानियों के कष्टों एवं संघर्षों का वर्णन किया है; वरन् तत्कालीन शासन-प्रशासन तंत्र, विशेषकर जेल, थाना आदि के अधिकारियों एवं पुलिस के कारनामों का भी बारीक विश्लेषण किया है। उन्होंने अंग्रेज सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी का भी निर्भीकता से वर्णन किया है। वे लिखते हैं, ‘‘जेल के कर्मचारी पुलिस वालों से भी अधिक रिश्वतखोर और अत्याचारी हैं। मनो माल जेल से साफ उड़ा लेते हैं। खूब रुपया खाते हैं। कैदियों से खाते और कैदियों का पेट काट-काट कर खाते, और सरकारी खाते। जेल के कर्मचारियों के घरों की तलाशी हो, तो मनो माल जेल का उनके घरों से निकले।’’

स्वराज्य के मतवालों का चित्रण करते हुए उन्होंने आजादी के उन नायकों के चरित्र पर किंचित प्रकाश डाला है जो समय-समय पर जेल-जीवन में उनके सहयात्री बने। इनमें पं0 मोतीलाल नेहरु, पं0 जवाहर लाल नेहरु, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, डाॅ0 जवाहर लाल रोहतगी, बाबू रणेन्द्रनाथ बसु, मौलाना कमाल उद्दीन जाफरी तथा रामनाथ गुर्टू आदि प्रमुख हैं। उनमें से अनेक ऐसे मतवाले भी हैं, जो अल्पज्ञात अथवा अज्ञात रह गए। ऐसे न जाने कितने पराक्रमी क्रान्तिकारी थे। इन्ही में से एक थे सीताराम जी शुक्ल जिन्होंने जेल में राजनीतिक कैदियों वाला अच्छा भोजन लेने से मना कर दिया था। उन्होंने साधारण कैदियों वाले भोजन, वस्त्र और कड़ी मशक्कत के लिए जेल में सत्याग्रह शुरु कर दिया था। हाथों-पैरों में हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ डालकर उन्हें लगभग एक दर्जन से अधिक जेलों में रखा गया था। विद्यार्थी जी के शब्दों में, ‘‘उन्होंने कह दिया, एक तौक की जगह दो तौक पहना दो, और एक बेड़ी की जगह दो बेड़ी, इससे ज्यादा तुम कर ही क्या सकते हो।.......... वे अच्छे जमींदार हैं। चाहते तो आनन्द से घर रहते। परन्तु देशभक्ति का नशा उनके सिर पर ऐसा सवार है कि वे भय को भय नहीं मानते और न आराम को आराम।’’


इस प्रकार इस आलेख में अनेक ऐसे विवरण हैं, जिन्हे पढ़ते हुए आज के युवा यह जान सकते हैं कि आजादी कितनी त्याग, तपस्या और बलिदान का प्रतिफल है।
राष्ट्रचिन्तन में लीन रहने वाले इस महापुरुष के अनेक आलेख न सिर्फ उन दिनों युवाओं के पथ-प्रदर्शक थे; वरन् आज भी हर तरह से हमारे मार्गदर्शक हैं। विद्यार्थी जी आजादी की प्राप्ति और उसके बाद जिस तरह के राष्ट्रनिर्माण का स्वप्न देख रहे थे, उनका वह सपना आज भी पूरा नहीं हो सका है। सन् 1915 ई0 में लिखा गया निबंध ‘राष्ट्र का निर्माण’ आज भी कितना प्रासंगिक है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं, ‘‘ऊसर भूमि पुष्पों की जननी नहीं होती, और न उल्टे-सीधे डाल दिए जाने वाले बीज ही कभी पुष्पोद्यान का हाथ दिखा सकते हैं। पराजित देश किसी सभ्यता के मंदिर नहीं बनते, सरस्वती उन पर कृपा नहीं करती, लक्ष्मी उन पर दृष्टि नहीं डालती।’’ देशोद्धार या जनजीवन के अभ्युत्थान के लिए युवाओं की शक्ति को वे कितना महत्व देते थे, उनके इस उद्धरण से स्पष्ट है, ‘‘देश की सच्ची सम्पत्ति हैं उसके वे युवक ओर युवतियाँ, जिनके शरीर की आभा में प्रकृति का सबसे अधिक स्पष्ट दर्शन होता है। और जिनके हृदय में उदारता और कर्मण्यता, सहिष्णुता और अदम्य साहस के स्रोत का प्रवाह पूरे जोरों पर है।’’ विद्यार्थी जी किसी देश की सर्वतोमुखी प्रगति का सबसे बड़ा आधार वहाँ के कर्मशील और प्रतिभाशाली युवाओं को मानते थे। यहाँ ध्यातव्य है कि विगत एक सौ वर्षों में हम ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से कहाँ से कहाँ पहुँच गए बावजूद इसके दहेज प्रथा, बाल विवाह, स्त्री-पुरुष असमानता आदि की समस्याओं को हम अभी तक जड़ से मिटा नहीं पाये हैं बल्कि कन्या भ्रूण हत्या जैसी बुराइयाँ और पैदा हो गई हैं। विद्यार्थी जी ने ‘युवक’ के साथ ‘युवती’ शब्द का प्रयोग कर लगभग एक सौ वर्ष पूर्व ही स्त्री समानाधिकार को कितना महत्व दिया था। यहाँ कहना थोड़ा असंगत हो सकता है पर युवाओं को प्रबोधित करने, उनमें जागरण का मंत्र फूंकने में विद्यार्थी जी की भूमिका स्वामी विवेकानन्द जैसी ही थी।

‘राष्ट्र की आशा’ निबन्ध में देश की युवा शक्ति को झकझोरते हुए विद्यार्थी जी ने जहाँ अतीत के गौरव से प्रेरणा लेने को सीख दी है, वहीं वर्तमान की कमजोरियों, हमारे अधःपतन और हमारी अशिक्षा पर प्रहार करते हुए सोये हुए जनमानस को एक लम्बी और गहरी नींद से जगाने का कार्य किया है। वे कहते हैं कि जिन दिनों पाश्चात्य देशों में सभ्यता और संस्कृति का सूर्योदय नहीं हुआ था, उन दिनों ज्ञान-विज्ञान, व्यवसाय, धन-सम्पदा, धर्म, दर्शन, कला अर्थात् सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि में भारत विश्व का सिरमौर था। क्या कारण है कि आज हमारा देश पद्दलित, शोषित और अधोगति को प्राप्त है। वे युवकों को ललकारते हुए कहते हैं कि, ‘‘तुममें से कितने हैं, जिन्हें इस बात का बोध हो कि अर्वाचीन उन्नति के समय में, जबकि इंग्लैण्ड, अमेरिका, जर्मनी तथा जापान जैसे देशों में 99 फीसदी पुरुष तथा स्त्रियाँ शिक्षित हैं, इस देश में 94 फीसदी पुरुष तथा स्त्रियाँ ऐसे हैं जो शिक्षा रूपी सूर्य के उजियाले से कोसों दूर हैं। तुम में से कितने हैं जिन्होंने इस भयंकर दारिद्रय तथा अज्ञानांधकार को यथाशक्ति दूर करने का बीड़ा उठाया हो?’’ इसी तरह ‘माँ के अंचल में’ निबन्ध में वे देशवासियों को लोकतांत्रिक चेतना के प्रति जागरुक करते हैं और विस्तार उसकी अच्छाइयों का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि प्रजातंत्र की यह आँधी जब सारे विश्व में आई। तब भारत ही इससे अप्रभावित क्यों रहे? ‘‘यह आँधी सब जगह आई हुई है। रूस, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, टर्की, चीन सब देशों के वन-उपवन उसके झोकों से कंपित हो उठे। प्रजातंत्र की यह आँधी कई देशों में आई और उसने जनता की छाती पर शताब्दियों से रुके हुए सिंहासनों को उखाड़कर फेंक दिया। जो राष्ट्र सुषुप्तावस्था में पड़े हुए थे, वे उन्निद्रत होकर अपनेपन को प्राप्त करने दौड़ पड़े।’’
 विद्यार्थी जी इस मायने में अपने समय के विलक्षण विचारक थे कि वे अहिंसावादियों और क्रान्तिकारियों को समान रूप से प्रिय थे। जब गाँधी जी सहित वरिष्ठ पीढ़ी के उनके अधिकांश अनुयायी युवा क्रान्तिकारियों को भटका हुआ, कुमार्गी या देशद्रोही कहकर अपमानित कर रहे थे तब उन्होंने ‘वे दीवाने’ अग्रलेख लिखकर ऐसे लोगों को करारा जवाब दिया था। काकोरी काण्ड के फैसले के बाद लिखे इस अग्रलेख में वे लिखते हैं, ‘‘हम सशस्त्र क्रान्ति के उपासक नहीं हैं। हम भी उन पढ़े-लिखे मूर्खों में गिने जाते हैं, जो व्यावहारिकता को छोड़ना नहीं चाहते। लेकिन हमारे हृदय में आदर और भक्ति है, उन आदर्श पुजारियों के प्रति जो देश-काल के बंधनों को काटकर फेंक देते हैं। उनका काम क्या रंग लाएगा, इसकी उन्हें चिन्ता नहीं। वे विद्रोह के पुतले हैं। वे भारतवर्ष की अन्तर-अग्नि की चिनगारियाँ हैं।.... उनका काम है देश को उन्नत और विशाल करना।’’ इसी प्रकार ‘हमारे वे मतवाले निर्वासित वीर’ आलेख में उन्होने लाला हरदयाल जैसे उन निस्पृह, सत्यनिष्ठ, त्यागी महापुरुषों को याद किया है जो दूसरे देशों में निर्वासित जीवन जीते हुए तथा अनेक प्रकार के कष्टों और आर्थिक संकट का सामना करते हुए देश की स्वाधीनता के लिए प्रयत्नशील थे। वे लिखते हैं कि, ‘‘हम लोग तो अंधे हैं। हम दूसरों की आँखों से देखते हैं। विदेशों के वीरों की चरितावली हम बड़े चाव से पढ़ते हैं, पर हमारे देशवासियों ने स्वतंत्रता के युद्ध में जिन कठिनाइयों का सामना किया और जो यंत्रणाएँ सहीं, उनका हमें पता तक नहीं।’’ चौरी चौरा काण्ड से आहत होकर महात्मा गाँधी जब अचानक अपने उफान पर चल रहे असहयोग आन्दोलन को स्थगित कर देते हैं, और उपवास पर बैठ जाते हैं, तब विद्यार्थी जी उनके इस निर्णय से सहमत नहीं हो पाते। ‘जेल जीवन की झलक’ आलेख में वे लिखते हैं कि सैकड़ों सत्याग्रही जो रोज जेल में महात्मा गाँधी की जय के नारे लगाते थे, उनके इस निर्णय से ऐसे कुम्हला गये जैसे तुषार से बतिया कुम्हला जाती है। ‘‘एक महाशय बोले, चौरी चौरा काण्ड पर उपवास ही क्यों? माघ मेले में जिस प्रकार कीलदार पीढ़े पर साधू लोग बैठकर अपनी तपस्या की प्रदर्शनी किया करते हैं, वैसा ही एक पीढ़ा गाँधी जी पास भेज देना चाहिए, और वे उस पर बैठक तपस्या भी करें।’’



विद्यार्थी जी का मानना था कि नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में वैमत्य की बजाय एक-दूसरे के प्रति आदर और स्नेह का भाव होना चाहिए। वे कहते थे कि नई पीढ़ी की विद्युत शक्ति को सहेजने और उसके उचित संचालन का कार्य पुरानी पीढ़ी द्वारा किया जाना चाहिए। उनका लेख ‘युवकों का विद्रोह’ आजादी की लड़ाई में युवा क्रान्तिकारियों के योगदान को व्याख्यायित करने वाला एक महत्वपूर्ण लेख है। वे कहते हैं कि, ‘‘युवक, युवक ही क्या, यदि उसमें उत्साह और ओज न हो। युवकत्व का सबसे बड़ा प्रमाण ही यह है कि भावनाओं का वह पुंज हो और अखिल उत्साह का स्रोत।’’ इसी आलेख में हिंसा और अहिंसा के द्वन्द्व पर उनके विचार अत्यंत सार्थक और मूल्यवान हैं। वे लिखते हैं, ‘‘हिंसा और अहिंसा की विवेचना छोड़ दीजिए, विज्ञान ने वर्तमान रण शैली को बेहद भयंकर बना दिया है, उसमें वीरता नहीं रही, उसमें पशुता और हत्या का राज है, और उसके मुकाबले हमारे ऐसे शताब्दियों से निशस्त्र लोगों का खड़ा रह सकना असम्भव है। हमारे लिए तो अहिंसा ही परम अस्त्र है, उसी से हम दुनिया में किसी का मुकाबला कर सकते हैं।" इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विद्यार्थी जी क्रान्तिचेता युवकों का सम्मान करते थे, उनका उत्साहवर्धन भी, पर यह भी मानते थे कि अहिंसा का कोई विकल्प नहीं है।


विद्यार्थी जी के निबन्धों में ऋजुता, सहजता, बोधगम्यता के साथ तथ्यानुशीलन सर्वत्र विद्यमान है। उनके निबन्ध जहाँ उद्बोधन शैली में हैं और विचारात्मक हैं, वहाँ व्यास शैली का प्रयोग हुआ है। जहाँ वे दर्शन मनोविज्ञान या सैद्धान्तिक विषयों पर लिखते हैं, वहाँ समास शैली का प्रयोग हुआ है। वैसे इस तरह की प्रवृत्ति सर्वत्र नहीं दिखाई देती। दरअसल ये निबन्ध ‘प्रताप' या अन्यत्र अग्रलेखों या आलेखों के रूप में लिखे गए, जिनमें स्थान और कलेवर की एक सीमा थी। अनेक विचारात्मक निबंध भी समास शैली में हैं, जिनके एक-एक वाक्य में गम्भीर चिन्तन समाहित है। ‘लोकसेवा’, ‘सार्वजनिक सदाचार’, ‘कर्मक्षेत्र’, ‘राष्ट्रीयता’, ‘सुगमता की माया’, ’धर्म की आड़' , ‘दरिद्रता का सामना’, ‘आगामी महाभारत’ आदि अनेक इसी प्रकार के महत्वपूर्ण निबन्ध हैं। ’धर्म की आड़' तथा ‘जिहाद की जरूरत’ निबंधों में उन्होंने हिन्दू- मुसलमानों की धार्मिक रूढ़ियों, जड़ताओं, जहालत तथा अंधविश्वासों पर करारे प्रहार किए हैं।


‘स्वराज्य किसके लिए?’ एक छोटा किन्तु इतना महत्वपूर्ण लेख है, जो मुंशी प्रेमचंद सहित अनेक कथाकारों के लिए प्रेरणादायी बना। प्रेमचंद की कहानी ‘आहुति’ की नायिका का यह कहना कि, ‘‘जाॅन की जगह अगर गोविन्द गद्दी पर बैठ जाये।’’ या ‘गबन’ उपन्यास के एक पात्र देवीदीन खटिक का यह कहना कि, ‘‘साहब! सच-सच बताओ जब तुम सुराज का नाम लेते हो, तब उसका कौन सा रूप तुम्हारी आँखों में होता है?..... इस सुराज से क्या होगा? तुम दिन में पाँच बार खाना खाना चाहते हो, वह भी बढ़िया माल। गरीब किसान को एक बार भी सूखा चबेना नहीं मिलता..........।’’ आदि कथन क्या विद्यार्थी जी के इस निबंध से प्रभावित नहीं है? विद्यार्थी जी अपने इस निबंध में पहले ही स्पष्ट कर चुके थे कि, ‘‘देश में जो स्वराज्य होगा, वह होगा किसी छोटे-मोटे समुदाय का नहीं, धनवानों और शिक्षितों का नहीं, वह होगा, साधारण से साधारण आदमी तक का। संसार भर की शासन पद्धति इस समय उलट-पलट रही हैं। व्यक्ति को समान अधिकार कागजों पर दिये गये हैं परन्तु कुलीनों, धनवानों और शिक्षितों के गुट करोड़ों आदमियों को दाबे बैठे हैं।’’ इन विचारों के आधार पर हम कह सकते हैं कि विद्यार्थी जी के सपनों का स्वराज्य हमें आज तक नहीं मिल सका है।


गणेशशंकर विद्यार्थी ने कुछ कहानियाँ भी लिखी थीं, पर उनकी सिर्फ एक कहानी ही मिलती है, ‘हाथी की फाँसी’। वे मूलतः कहानीकार नहीं थे पर वस्तु और शिल्प के स्तर पर यह कहानी बहुत उत्कृष्ट है। कथ्य, भाषा, शिल्प, संवाद, किस्सागाई और रूपक तत्व में यह कहानी आज के दौर की श्रेष्ठ कहानियों की तुलना में किसी भी मायने में कमतर नहीं है। विद्यार्थी जी के हरदोई जेल में कैद रहने के दौरान सन् 1920 ईस्वी के आसपास यह कहानी लिखी गई थी। उस समय देश की आजादी के लिए मरने-मिटने वाले दीवानों की कमी नहीं थी, तो दूसरी ओर झूठी शान वाले, सुविधाभोगी, अय्याश शोषकों, सामन्तों, नवाबों की भी कमी नहीं थी। विद्यार्थी जी ने व्यंग्य शैली में इन्हीं में से एक चित्र उठाया है। कहानी एक स्नैपशाट लगने के बावजूद सोचनीय वास्तविकता का उद्घाटन करती है। बहुत सम्भव है कि कहानी पढ़कर कोई भी सामान्य पाठक इसे विशुद्ध हास्य-व्यंग की मनोरंजन प्रधान कहानी समझे, पर ऐसा नहीं है। सीधे-सादे कथानक में सशक्त संवाद योजना के द्वारा विद्यार्थी जी ने इस कहानी में बहुस्तरीय अर्थवत्ता पैदा की है। शीर्षक की अंतरध्वनि भी बहुस्तरीय है। व्यंजना यह है कि अंग्रेजों ने अपनी बुद्धि, तर्क, ज्ञान-विज्ञान और समय की पाबन्दी से देश भर के शासकों (हाथियों) को फाँसी दे दी है। यहाँ हाथी शान-शौकत वाले सामंतों, नवाबों के प्रतीक हो सकते हैं तो मद, अहंकार और घमण्ड के प्रतीक भी। कहानी अपनी अभिव्यंजना शक्ति में भी बेजोड़ है।


विद्यार्थी जी का भाषा और साहित्य के प्रति लगाव तथा उनके भाषण


हिन्दी की सेवा और उसे राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन कराने में आजादी के पूर्व जिन विद्वानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही, उनमें एक नाम विद्यार्थी जी का भी है। हिन्दी भाषा के परिष्कार, संस्कार और उसके व्याकरण सम्मत रूप का प्रचार-प्रसार करने में वे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सच्चे उत्तराधिकारी थे। मार्च 1930 में, अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन गोरखपुर में दिया गया उनका सुदीर्घ वक्तव्य ‘हिन्दी का गौरव’ अत्यंत मूल्यवान है। हिन्दी, उर्दू के उद्भव और विकास से लेकर उसके संघर्ष, ज्ञान-विज्ञान के अनेक अनुशासनों में उसके प्रयोग, सामर्थ्य  और सीमा, देश-विदेश में उसके उपयोग, लिपि, उसके साहित्यिक योगदान एवं अनेकानेक संस्थाओं द्वारा हिन्दी साहित्य की सेवा आदि पर उस समय का महत्वपूर्ण और विस्तृत लेखा-जोखा इस निबन्ध में है। इस लेख के माध्यम से जहाँ विद्यार्थी जी ने गद्य की अनेक विधाओं (नाटक आदि) में लेखन की आवश्यकता पर बल दिया, वहीं कुरुचिपूर्ण साहित्य की भर्त्सना भी की है। एक अंश द्रष्टव्य है, ‘‘सज्जनो! हिन्दी साहित्य के एक विशेष अंग पर मुझे अपना कुछ मत प्रकट करना आवश्यक जंचता है। इस समय ‘घासलेटी साहित्य’ की चर्चा बहुत जोरों से उठ रही है मुझे इस बात के बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि घासलेटी साहित्य किस प्रकार के साहित्य को कहते हैं? जो साहित्य यथार्थ में सार्वजनिक कुरुचि की वृद्धि करने वाला है, वह निःसन्देह त्याज्य और  भर्त्सनीय है।’’

इसी प्रकार ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ शीर्षक से उनके सुदीर्घ आलेख में विश्व के अनेक देशों की शिक्षा व्यवस्था का मूल्यांकन हुआ है, और उसके आलोक में भारतीय शिक्षा नीति पर उन्होंने मूल्यवान  विमर्श किया है। एक सौ वर्ष से अधिक पहले लिखा गया यह आलेख आज भी न सिर्फ प्रासंगिक है, वरन् आज की शिक्षा व्यवस्था को आईना भी दिखा रहा है।

विद्यार्थी जी कितने बड़े और सजग भविष्यद्रष्टा थे, इसे जानने के लिए उनके दो निबंधों का उल्लेख आवश्यक है। पहला ‘पहाड़ों के अंचल में’ तथा दूसरा ‘नगर जीवन’। पहाड़ों के अंचल में निबंध पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों, विशेषकर वहाँ की स्त्रियों के संघर्षपूर्ण जीवन, उनकी परवशता और उन पर होने वाले अत्याचारों के वर्णन हमारी आत्मा को कचोटते हैं। वहाँ की सांस्कृतिक चेतना, प्राकृतिक सुषमा आदि के वर्णनों में रिपोर्ताज और यात्रावृतांत का आनंद एक साथ लिया जा सकता है। विशेष बात यह है कि इस निबन्ध के माध्यम से आज से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व वे न सिर्फ प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण की बात करते हैं वरन् मशीनीकरण की अंधी दौड़ में श्रमिकों, कुलियों, टट्टूवालों आदि की छिनती हुई आजीविका पर भी गम्भीर चिन्ता प्रकट करते हैं। इसी प्रकार ‘नगर जीवन’ निबंध में आजीविका के लिए या अन्य कारणों से ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन और नगरीय जीवन के प्रति ललक के कारण नगरों एवं शहरों में बेतरतीब फैलती बस्तियों के नारकीय जीवन पर चिन्ता प्रकट की गई है। इस समस्या का पूर्वानुमान उन्होंने एक शताब्दी पहले ही कर लिया था।


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