Saturday, June 24, 2023

यूट्यूबर के साथ काम करें या कॉर्पोरेट मीडिया के साथ ?

विनीत कुमार 

आपके मोबाईल या कम्प्यूटर स्क्रीन पर जो यूट्यूबर वन मैन शो वाली पत्रकारिता करते नज़र आते हैं, उन्होंने कैमरा, प्रोडक्शन, एडिंटग एवं रिसर्च जैसे काम के लिए इन्टर्न या सीखने के नाम पर कम पैसे में मीडिया के छात्रों को अवसर देना शुरू कर दिया है. इसका मतलब है कि छोटी ही सही, अब वो अपनी एक टीम बना चुके हैं. बहुत संभव है कि यह टीम आगे चलकर एक मीडिया संस्थान के तौर पर विकसित हो जैसा कि निजी समाचार चैनलों के शुरूआती दौर में आजतक, एनडीटीवी, जी न्यूज़, आगे चलकर तहलका और दि वायर जैसे संस्थानों का विस्तार हुआ.

मेरे पास इस संबंध में फोन आने लगे हैं कि यदि हमें एक तरफ फलां यूट्यूबर मीडियाकर्मी के साथ काम करने का मौक़ा मिल रहा है और दूसरी तरफ कॉर्पोरेट मीडिया की तरफ से ऑफर है, ऐसे में हमें क्या करना चाहिए, आप सुझाव दें ? यह जानकारी देते हुए वो साथ में जोड़ना नहीं भूलते कि कॉर्पोरेट मीडिया में पैसे तो मिल जाएंगे लेकिन जो हाल है, वहां हम पत्रकारिता के नाम पर क्या करेंगे, ये तो आपको भी पता ही है.

यह तो हम अपनी आंखों के सामने देख ही रहे हैं कि जैसे-जैसे समय बीत रहा है, कॉर्पोरेट मीडिया जिसे कि मुख्यधारा मीडिया मानकर देखा-समझा जाता रहा है, पत्रकारिता की गुंजाईश तेजी से ख़त्म होती जा रही है. ऐसे दौर में जबकि मीडिया पूरी तरह दो हिस्सों में बंट चुका हो और दोनों तरफ से अतिरेक दिखाई देते हों, आगे चलकर नागरिकों के सवाल के नाम पर अहं, निजी हित और अपनी बात मनवाने का आग्रह और जोर मारता रहेगा. हालत यह है कि एक बड़ी आबादी है जो रोज़ाना टीवी चैनल देखे या अख़बार पढ़े बिना राय बना चुकी है कि कौन क्या बोलेंगे, कौन क्या लिखेगा और छापेगा ? जिन रिपोर्ट, लेख और कार्यक्रमों को तैयार करने में घंटों लग जाते हों, उन्हें लेकर एक पूर्वग्रह तैयार है, ये पत्रकारिता के लिए बेहद ख़तरनाक स्थिति है. ऐसे में यूट्यूबर अपने स्तर पर जो कुछ भी कर रहे हैं और उन्हें तारीफ़ मिल रही है तो मीडिया के छात्रों के भीतर उनके साथ जुड़ने का आग्रह स्वाभाविक है.


मैं पिछले दस साल से देश के अलग-अलग मीडिया संस्थानों के सैकड़ों मीडिया छात्रों के संपर्क में रहता आया हूं और मेरा अनुभव यह कहता है कि मीडिया के छात्र या नए मीडियाकर्मी दिमाग़ी तौर पर दो खांचे में बंटे होते हैं- एक जिन्हें जल्दी-जल्दी फ्लैट, गाड़ी, सुविधाएं, परिवार, बच्चे...चाहिए और दूसरे जिन्हें ये सब तो चाहिए लेकिन उससे पहले उनके उपर सरोकार, समाज, देशहित, बदलाव आदि की एक परत भी चाहिए. वो परत समाज में यह भरोसा बनाए रखे कि गणेश शंकर विद्यार्थी के वंशज अभी बचे हुए हैं. पहले खांचे के लोग कहीं ज़्यादा स्पष्ट और सपाट होते हैं. उनके लिए मीडिया एक पेशा है, रोज़गार है और जिससे उन्हें सामाजिक और आर्थिक हैसियत दुरूस्त करनी है.


दूसरे खांचे के छात्र-नए मीडियाकर्मी थोड़े कन्फ्यूज्ड रहते हैं. उन्हें भी वो सबकुछ चाहिए जिनकी आलोचना करते हुए उनकी ट्रेनिंग हुई. वो न भी चाहें तो सामाजिक ढांचा है कि देर-सबेर ऐसा सोचने के लिए धकेल दिया जाएगा लेकिन उनकी हसरत इस बात की बराबर बनी रहती है कि पहले उन्हें पत्रकार समझा जाय, सरोकारी माना जाय और उसके भीतर से एक ऐसा अर्थतंत्र बने कि हमारी वो सारी ज़रूरतें और सपने पूरे हों जो पहले खांचे के लोग तेजी से हासिल कर ले रहे हैं. ऐसा सोचने और करने में कोई बुराई नहीं है. जो इंसान पेट और दिमाग़ की ज़रूरतें पूरी नहीं कर सकता, बहुत संभव है कि अपनी तमाम बौद्धिकता और प्रतिभा के बावज़ूद कुंठा या हताशा का शिकार हो जाए. ये सब अंतहीन बातें हैं..

फिलहाल ये कि हमलोग जो आए दिन कॉर्पोरेट मीडिया की कारगुज़ारियों पर लगातार लिखते रहते हैं, नए मीडियाकर्मी या छात्र को करिअर का फैसला उसके हिसाब से नहीं लेना चाहिए. मीडिया संस्थानों से प्रकाशित-प्रसारित सामग्री और मीडियाकर्मियों के साथ व्यवहार अलग चीज़ें हो सकती हैं. ये बहुत संभव है कि जो चैनल दिन-रात जहर उगल रहा हो वो अपने मीडियाकर्मियों को समय पर सैलरी और बाकी सुविधाएं मुहैया करा रहा हो और जो दिन-रात सरोकार की बात करता नज़र आता हो, पत्रकारिता की आड़ में अपने मीडियाकर्मियों का हक़ मारने और निचोड़ने में लगा हो. आप सोशल मीडिया पर लोगों के लिखे पर ग़ौर करेंगे तो हर दूसरा-तीसरा व्यक्ति अंबानी समूह और उसके उत्पाद को कोसता नज़र आएगा लेकिन बात काम करने पर विचार करने की हो तो उसे प्राथमिकी तौर पर महत्व देगा. ऐसा इसलिए कि एक चैनल जो चिट-फंट के धंधे में है, उसके मुक़ाबले वेतन, सुविधा और सुरक्षा की गारंटी यहां ज़्यादा है या हो सकती है. ऐसा कहने का मतलब इनके प्रतिरोध में लिखने से असहमत होना नहीं है, पाठक और मीडियाकर्मी के स्तर पर अलग-अलग ढंग से, अलग-अलग स्थितियों को ध्यान में रखकर सोचने से है. यूट्यूबर के मामले में आप इसी तरह से सोच सकते हैं.


एक पाठक, दर्शक के तौर पर आपको इन यूट्यूबर का काम बहुत पसंद आता है, आपको लगता है कि सच्ची पत्रकारिता ये लोग ही कर रहे हैं. आप इनके साथ रहेंगे तो बहुत कुछ सीखेंगे, इसके बदले में भले ही आपको किसी तरह का आर्थिक सहयोग न मिल रहा हो या कम मिल रहा हो. लेकिन यहां पर आपको एक बात गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है और वो यह कि इन्हें लेकर पत्रकारिता के जो जज़्बात पैदा हो रहे हैं, वो सुरक्षित रह पाएगा ? वो यूट्यूब कंटेंट के अलावा अपने व्यवहार में इतने उदार, लोकतांत्रिक और खुले दिल के हैं कि आपको आगे जाने के भरपूर मौक़ा दें ? मैं ऐसे चमकीले यूट्यूबर मीडियाकर्मी की वीडियो से जब भी गुज़रता हूं, इस बात पर ख़ासतौर पर ग़ौर करता हूं कि वो शुरू में या आख़िर में किस-किसको क्रेडिट देते हैं, किसके काम की चर्चा करते हैं ?

मेरी अपनी समझ है कि एक दर्शक-पाठक के तौर पर ये यूट्यूबर मीडियाकर्मी हमारी ज़रूरतें पूरी कर रहे हैं, इस लिहाज़ से इनके प्रति हमारे मन में गहरा सम्मान है. इनका ये हौसला बरक़रार रहे. लेकिन यही बात मैं इनके साथ जुड़कर काम करने के संदर्भ में नहीं सोच सकता. वो इसलिए कि जब भी कारोबारी मीडिया का मुक़्कमल इतिहास लिखा जाएगा, ये सबके सब उसी कटघरे में शामिल होंगे जिसकी शिकायत आज वो कर रहे हैं. आप शायद भूल गए होंगे, मैं यह बात कभी नहीं भूल सकता कि सौ करोड़ की कथित दलाली मामले में जी न्यूज के संपादक की गिरफ़्तारी होने पर तब इसी एक यूट्यूबर मीडियाकर्मी ने जो तब इस चैनल का फ्लैगशिप कार्यक्रम पेश किया करते, कहा- ये भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में काला दिन है, ये आपातकाल है पता नहीं आगे क्या स्थिति बनी कि चैनल से अलग हो गए. क्या उन्हें पता नहीं था कि आपातकाल का मतलब क्या होता है और संपादक पर किस बात का आरोप है ? आप ग़ौर करेंगे तो एक-एक करके सबके साथ एक लंबी फ़ेहरिस्त आपको जुड़ी मिलेगी जिसमें कि बचाव और पर्दा डालने का काम लोकतंत्र के नाम पर होता रहा जबकि उसके पीछे एक स्पष्ट व्यावसायिक कारोबारी हित था. इस मामले में मेरी समझ बिल्कुल साफ है कि नए माध्यम के तौर पर यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म का चयन कुछ कर गुज़रने से कहीं ज़्यादा नए व्यावसायिक मॉडल की खोज है.

शागिर्दी बेहद ख़ूबसूरत चीज़ है. शास्त्रीय संगीत और दूसरी कलाओं में अभी भी सीखने-समझने का सबसे बेहतर तरीका यही है कि किसी उस्ताद के साथ हो लो. वो जो आपको सिखा-बता जाएंगे, उसके आगे संस्थान की पढ़ाई बहुत पीछे हैं..लेकिन मीडियाकर्मियों के चमकीले चेहरे को देखकर शागिर्द होने से पहले इस सिरे से विचार करना उतना ही ज़रूरी है कि जिस लोकतंत्र और आज़ाद ख़्याल की बात वो स्क्रीन पर किया करते हैं, वो उसे बर्दाश्त भी कर पाते हैं ?

बिना लागलपेट के आप मुझसे पूछेंगे तो मैं यदि आपकी जगह रहूं और मेरे सामने जी न्यूज, इंडिया टीवी, आजतक में काम करने का अवसर हो और यूट्यूबर के साथ जुड़कर सरोकारी पत्रकारिता करने का ऑफर तो मैं बिना हिचक के जी न्यूज, इंडिया टीवी या आजतक से जुड़ना पसंद करूंगा. यह जानते हुए कि यहां पत्रकारिता नहीं होती लेकिन वहां इस बात की दुविधा भी नहीं होगी कि हम पत्रकारिता कर रहे हैं या फिर जन सरोकार. एक मीडिया छात्र या नए मीडियाकर्मी के तौर पर मैं तब भी इन संस्थानों में बहुत कुछ ऐसा सीख पाऊंगा जो यूट्यूबर के साथ जुड़कर संभव नहीं. मुझे इस बात का यकीं ही नहीं होगा कि ये हमें संभावनाओं से भरा एक मीडियाकर्मी के तौर पर हमें देखना बर्दाश्त कर पाएंगे. सलाह देने की स्थिति में तो मैं कभी नहीं होता लेकिन हां

यह ज़रूर है कि यूट्यूबर जो अनुभव लेकर कारोबारी मीडिया से अलग होकर नया व्यावसायिक मॉडल खोज रहे हैं, नए मीडियाकर्मी पहले कारोबारी मीडिया के अनुभव से गुज़रते हैं तो आगे उनके भीतर कम से कम दुविधा होगी. चीज़ों से एकदम मोहभंग हो जाना और वो भी बिना अनुभव के ही, अच्छी स्थिति नहीं होती. आख़िर वो भी आज यूट्यूब के ज़रिए पत्रकारिता इसलिए कर पा रहे हैं कि कॉर्पोरेट मीडिया में सालोंसाल काम करते हुए आर्थिक-सामाजिक मोर्चे पर एक सुरक्षित ढांचा खड़ा कर लिया है. वो इस काम में असफल भी होते हैं तो जीविकोपार्जन के स्तर पर कोई संकट नहीं होगा जबकि एक नए मीडियाकर्मी के लिए तो कमरे के किराये से लेकर ढाबे का खाना, कपड़े, राह खर्च सब इसी पत्रकारिता से जुटाने होंगे.



(साभार विनीत कुमार की फेसबुक वाल से)



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