Saturday, March 2, 2024

शतरंज के खिलाड़ी - "तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विश्लेषण" - By PRAKHAR

  

एक जमाने में कहा जाता था कि जिसको ना दे मौला उसको दे सुराजुद्दौला, सुराजुद्दौला अपने समय के दानवीर राजा थे उनके शासनकाल के बाद... लखनऊ में मौजूद तमाम मीनार और इमारतें उन्हीं के काल में बनी उनका एक शेर भी था " जहां में जहां तक जगह पाइए, इमारतें बनाते चले जाइए "

प्रेमचंद्र की "शतरंज के खिलाड़ी" कहानी वाजिद अली शाह के समयकाल की है | कहानी का मूल भाव दर्शाता है कि किस प्रकार शहर के संरक्षण को नज़रअंदाज करते हुए, सियासी सूरमाओ ने अपनी वर्चस्व की लड़ाई शतरंज के लिए लड़ी, रफ्तार से तबाही की ओर बढ़ते समाज से अधिक तीव्रता के साथ दोनों बादशाहों ने एक दूसरे की जान ले ली | दोनों का आपसी रिश्ता जहाँ मित्रता को रेखांकित करता है तो वहीं मूर्खता को भी प्रकट करता है, तो एक और कहानी अंग्रेज शासक डलहौजी की क्रूरता का भी जिक्र करती है |

किताब में 

इस कहानी में लखनऊ को शाही विलासिता में डूबा हुआ एक नगर दिखाया गया है जहाँ गरीब हो या अमीर सब मस्ती में शिरकत करते हैं | कोई कारीगरी करता तो कोई मजलिस सजाता, फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियां न लेकर अफीम खाते...

शतरंज का शुमार इस शहर में सर चढ़कर बोलता था और तर्क दिया जाता कि शतरंज, ताश आदि खेलने से विचार शक्ति का विस्तार होता है |

बड़ी जागीर वाले बादशाह मिर्जा सज्जाद अली और बादशाह मीर रोशन अति घनिष्ट दोस्त होने के साथ ही शतरंज के ऐसे शाही खिलाड़ी थे जिन्हें ना तो अपने जीविका की चिंता थी ना ही समाज की..

एक की बेगम इस बात से खफा रहती थी कि उनके पुरुष उन्हें शतरंज के कारण समय क्यों नहीं देते हैं तो दूसरे की बेगम इस बात से खफा कि मेरे पुरुष घर से बाहर क्यों नहीं जाते हमेशा घर पर हुक्का पीते हुए शतरंज की चालें चला करते हैं |

रईसों का यह हाल था तो प्रजा की अल्लाह ही मालिक, प्रजा दिनदहाड़े लूटी जाती, बादशाह शतरंज के खेल को कम सियासी नहीं समझते थे बल्कि ऐसे प्यासे शूरमाओं की तरह लड़ते थे जैसे मानो असल युद्ध चल रहा हो  | 

इसलिए लखनऊ की बादशाहत का शतरंज के हातों तबाह होना निश्चित ही था |

एक बार जब दूसरी फौज ने हमला करने का फरमान भेजा तो दोनों बादशाह बचते हुए गोमती किनारे जा जमे और शतरंज की चालें जारी रखीं, मानो जैसे अक्ल और हिम्मत दोनों शतरंज ने चुरा ली हों |

राजनीतिक डांस के चलते क्षेत्र में संग्राम जैसे हालात थे, और लोग बच्चों को लेकर देहात की ओर भाग रहे थे |

ऐसे में जनाब वाहिद अली शाह पकड़ लिए गए और सेना उन्हें किसी अज्ञात जगह ले जाने लगी |

लखनऊ मानो जैसे ऐश की नींद सो रहा था, स्वाधीन राज्य के राजा की पराजय इतनी शांति से शायद इतिहास में ना हुई होगी कि जब ना ही मार-काट हुई, ना ही एक बूंद खून गिरा...

उधर विलास से भरे दोनों बादशाह मित्र शतरंज की चाल के दांवपेच में हुई नोकझोंक के चलते आपसी विवाद में पड़ गए, जो कि बढ़ते बढ़ते अहम Ego और व्यक्तिगत वीरता की लड़ाई में बदल गया, और तलवार बाजी में एक दूसरे को हराते हराते वो दोनों जीवन से हाथ धो बैठे.

गोमती पार नवाब सिराजुद्दौला की पुरानी वीरान मस्जिद में दोनों बादशाह शतरंज के अपने-अपने वजीर की रक्षा में प्राण गवा चुके थे, अंधेरा हो चला था बाजी बिछी हुई थी, सिंहासन पर बैठे शतरंज के बादशाह मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे |

किताब में जो छिपाया गया

किताब में अंग्रेज अधिकारियों और उनकी चाल बाजियों के बारे में तनिक भी नहीं बताया गया है, इसका कारण शायद प्रेमचंद्र जी का संकेतिक लेखन रहा होगा |

• किताब में दो महत्वपूर्ण बातों का विवरण नहीं था पहला कि वाजिद अली शाह द्वारा अपने पसंदीदा ताज को जब लंदन की एक प्रदर्शनी भेजा गया तो तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने लिखा था " the rich at Lucknow who has sent his crown to the exhibition, would have done his people and us a great service if he sent his head in it ; never missed it, that is the cherry which will drop into his mouth one day " जिसका अर्थ है "लखनऊ के जिस राजा ने अपना मुकुट भेजा है बहुत अच्छा होता कि वह अपना सिर भी भेजता अवध के सरताज का सर चैरी की तरह हड़प लिया जाए |"

• और दूसरा जब नवाब सुजाउदौल ने हिमाकत के चलते अंग्रेजी सेनाओं को चुनौती दे डाली और बदले में हार हासिल हुई, लेकिन अंग्रेजों की दरियादिली यह थी कि उन्होंने रियासत लेने के बजाय 50 लाख रुपए हर्जाने में लिए और दोस्ताना शपथ पत्र में दस्तखत करवाए, जिसमें उल्लेखित था कि जब भी अंग्रेजों को किसी जंग में पैसे की जरूरत पड़ेगी अवध के दरबार खुले रहेंगे |

 फिल्म 

Devki Chitra Presents || Based on story By Prem Chandra

- Amjad Khan as Wajid Ali Shah, - Ricchard Attenborough as general outram, - Sanjeev Kumar , - Saeed Jafreey , - Shabana Azmi , - Fareeda Jalal , - Veena , - Devid Abraham, - Victor Banerjee , - Farooq Shekh , - Tom Alter , - Leela Mishra , - Barry John, - Samarth Narain.

फ़िल्म के इंट्रो में कहानी का जिस्ट समझ आने का एक कारण यह भी हो सकता है कि उसकी रूपरेखा मैंने किताब में पहले पढ़ रखी है, मगर फर्क उतना ही महसूस होता है जितना कि किसी एक खबर को पेश करने में अखबार की भाषा शैली और टेलीविजन कार्यक्रम की स्क्रिप्ट की भाषा शैली में होता है |

किताब पढ़ कर दिमाग ने जो छवियां बनाई, उस छवियों को चार चांद लगा कर के मलाई मक्खन लगा के फिल्म में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया |

फिल्म में कई जगह बात को समझाने के लिए ब्लैक एंड व्हाइट ओल्ड एनिमेशन का भी प्रयोग किया गया है, जोकि हल्के अंदाज में दर्शक की रुचि बनाए रखने में प्रभावी है |

फिल्म के रोमांचक दृश्य जो किताब में न थे |

•} फिल्म में 49वें मिनट पर एक बुजुर्ग वकील की मृत्यु के बाद 5 मिनट लम्बा गाना फिट किया गया है जो कि कुछ इस प्रकार है

" कान्हा मैं तो से हारी छोड़ो हरि, सुनो बिहारी नहीं मैं दूंगी तुम्हें गारी " अमूमन आजकल की फिल्मों में मृत्यु पश्चात कोई गीत कम ही मिलता है जिसमें ईश्वर से सवालिया शिकायत की गई हो |


शायद गाने की गुंजाइश बनाए रखने के लिए ही फिल्म निर्देशक ने इससे ठीक पहले वकील की मृत्यु का सीन डाला और बादशाह मिर्जा सज्जाद अली के शतरंज की गोटियां चूरवा दीं, शतरंज खेलने के लोग के कारण ही दोनों मित्र बादशाह उस बुजुर्ग वकील के घर पहुंचे थे |


परंतु ऐसा कोई भी किस्सा किताब में नहीं मिलता 

•} फिल्म में 10 मिनट 26 सेकंड पर अंग्रेज रेसिडेंट जनरल उटरम जब अपने खबरिया से राजा के बारे में कंफर्म करते हुए पूछते हैं कि Why he Prays 5 time a day ? & What is Mushayra ? उनका खबरिया उन्हें बताता है कि A Mushayra is a gathering of poet., & concept of five times prayer is known as Namaz तभी मस्जिद से नमाज की आयतों का उपचार सुनाई देता है और जनरल उटरम कहते हैं कि तुम तो यही के हो, यहां की भाषा जानते हो तो यह जो आवाज सुनाई दे रहे हैं इसका अनुवाद बताओ... जवाब मैं खबरिया सुनाई पड़ रही कुछ आयतों का अर्थ हिंदी उच्चारण में बताता है जो कि फिल्म का बेहद खूबसूरत दृश्य है | जिसके बाद राजा की तमाम आदतों और नगर के हालात तो बर्बाद होने लगती है |

•} फिल्म में 19वें मिनट में एक दफा शतरंज के चलते खेल के बीच जब एक बुजुर्ग मुंशी का महल में आना हुआ, तो उन्होंने बताया कि यह इरानी खेल नहीं है बल्कि भारत से विलायत तक पहुंचा, किसको खेलने के दो तरीके हैं एक हिंदुस्तानी और एक अंग्रेजी, अंग्रेजी तरीके में फर्क सिर्फ इतना है कि पैदल दो घर चलता है तो वही वजीर को रानी का जाता है जो की आमने सामने खड़ी होती हैं |

 •} 7 फरवरी 1856 को जब जनाब वाजिद अली शाह सत्ता छोड़ी और अवध पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हुआ तब वाजिद अली शाह को फिल्म में यह गाते दर्शाया है कि  "जब छोड़ चले लखनऊ नगरी, कहे हाल के हम पर क्या गुज़री" 


किताबी हिस्सा जो फिल्म में छिपाया गया

•} किताब में ऐसा दर्शाया गया है कि जब बेगम इस बात से खफा होती हैं कि उनके पुरुष उन्हें शतरंज के कारण समय नही देते तो हरिया को भेजकर कई दफा उनको बुलाने का प्रयास करती, कई प्रयासों के बाद जब वह आ जाते हैं तो उनसे नाराजगी व्यक्त करती और किताब अनुसार क्रोध में जा कर शतरंज की गोटियां बाहर फेंकते हुए गेट बंद कर देते हैं और उनके साथी खिलाड़ी बाहर खड़े रह जाते और गुस्से की आहट सुनकर चुपचाप रवाना हो जाते....

जबकि फिल्म में महारानी को क्रोध में तो दिखाया है पर इतना नहीं कि उन्होंने साथी खिलाड़ी के मुंह पर गेट बंद कर दिया हो और गोटियां बाहर फेंक दी हों, बल्कि ऐसा दिखाया गया है कि महारानी गुस्से में तो है पर वह अपने क्रोध को बड़े ही मासूमियत से व्यक्त कर रही हैं, उसमें उनकी रोमांस करने की चाहत की झलक भी प्रस्तुत की गई है पर अंत में वह रात भर जाग कर अपने क्रोध की अभिव्यक्ति करती हैं |

•) "उल्फत ने तेरी हमको ना रखा कहीं का दरिया का ना जंगल का, हवा का ना ज़मीं का" यह शेर मीर साहब ने फिल्म के अंत भाग में आपसी लड़ाई से पहले कहा था, जब की किताब में शेर का कोई जिक्र ना था | हो सकता है बड़े पर्दे मांग पर ये शेर डाला गया हो लेकिन किताब के पेज नंबर 18 पर लिखा था कि " दोनों जख्म खाकर गिरे और दोनों ने वहीं तड़प-तड़प कर अपनी जान दे दी | अपने बादशाह के लिए जिनकी आंखों से एक बूंद पानी न निकला उन्हीं दोनों प्राणियों ने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिए | अंधेरा हो चला था | बाजी बिछी हुई थी | दोनों बादशाह अपने अपने सिंहासन पर बैठे मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे | "


 जबकि फिल्म में दोनों के बीच तीखी नोकझोंक होती है और बंदूक भी चलती है मगर फिर मामला सुलझ जाता है किसी की मृत्यु नहीं होती है और फिल्म का अंत अच्छी सिनेमैटोग्राफी के साथ वजीर की गोटी पर फोकस करते हुए 'मल्लिका विक्टोरिया तशरीफ ला रही हैं ' की गूंज के साथ हुआ |







मेरी बात और निष्कर्ष

•> सीरियस फिल्म को भी हमेशा मस्ती के मिजाज से देखा है भले ही उस से बहुत कुछ सीखने को मिला हो या फिर हंसी आई हो, कुछ मौकों पर समीक्षा के नजर से भी देखा पर इस असाइनमेंट के द्वारा एक तुलनात्मक विश्लेषण का अनुभव प्राप्त हुआ जहां न सिर्फ फिल्म का सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष गौर करना था ना सिर्फ किताब जिस पर फिल्म आधारित है उसका सकारात्मक नकारात्मक पक्ष बल्कि साथ ही में दोनों की तुलना भी करनी थी जो कि मेरे लिए निजी रूप से नया अनुभव था |

सच कई बार या शायद हमेशा ही फिल्टर हो कर आता है अनुवादक हो या लेखक, लिखते वही हैं जो दिखाना चाहते हैं ना कि वो जो सच होता है या शायद सच इतना सादा होता है कि बिना बात घूमाए फिराए उसे बेचा नहीं जा सकता |
 एक पत्रकार के तौर पर मेरा सुझाव यह हो सकता है कि जब मुगल साम्राज्य और लखनऊ की नजाकत को फिल्म में जोर दे कर दिखाया गया था, तो उस समय का वह हिस्सा भी शामिल करना चाहिए था जो कि भावी भविष्य में एक उदाहरण बन सकता था, और फिल्म के माध्यम से होता तो शायद और भी जोरदार तरह से...
 वह यह कि उस समय काल में ही वाजिद अली शाह के लखनऊ से बेदखल होने पर अफवाह उड़ी कि अंग्रेज उन्हें लंदन ले जा रहे हैं | तब लखनऊ की औरतों ने कैसर बाग़ में जमा होकर गाया ' हजरत जाते हैं लंदन, कृपा करो रघुनंदन '
यह भाग भी यदि फिल्म में पूरी मौलिकता के साथ दिखाया जाता तो तमाम उम्र तक जीवित रहता...
एक सवालिया शिकायत समाज और सरकार से भी हुई की क्रूर शासक डलहौजी जिसके अत्याचारों से भारतवासी पीड़ित रहे, आजादी के इतने साल बाद भी उसके नाम से इतनी जगह क्यों बनी हुई है ? क्या भला कोई देश गुलामी के प्रतीकों को इस तरह संजो कर रखता है ?
बात जहाँ तक रही शतरंज की तो जावेद साहब की कुछ पंक्तियों के साथ आपसे विदा लेता हूँ |

ये खेल क्या है 

मेरे मुखालिफ़ ने चाल चल दी है  और अब मेरी  चाल के इंतेज़ार में है
मगर मैं कब से सफ़ेद खानों सियाह खानों में रक्खे काले-सफ़ेद मोहरों को देखता हूँ

मैं सोचता हूँ ये मोहरे क्या हैं

अगर मैं समझूँ कि ये जो मोहरे हैं सिर्फ लकड़ी के हैं खिलौने
तो जीतना क्या है हारना क्या

न ये ज़रूरी , न वो अहम है

अगर खुशी है न जीतने की
न हारने का ही कोई ग़म है

तो खेल क्या है

मैं सोचता  हूँ , जो खेलना है
तो अपने दिल में यक़ीन कर लूँ

ये मोहरे सचमुच के बादशाहो-वज़ीर

सचमुच के हैं प्यादे और इनके आगे है
दुश्मनों की वो फ़ौज

रखती है जो कि मुझको तबाह करने के 
सारे मनसूबे सब इरादे

मगर मैं ऐसा जो मान भी लूँ तो सोचता हूँ
ये खेल कब है , 

ये जंग है जिसको जीतना है
ये जंग है जिसमें सब है जायज़

कोई ये कहता है जैसे मुझसे
ये जंग भी है, ये खेल भी है

ये जंग है पर खिलाड़ियों की
ये खेल है जंग की तरह का

मैं सोचता हूँ जो खेल है
इसमें इस तरह का उसूल क्यों है

कि कोई मोहरा रहे कि जाए
मगर जो है बादशाह उसपर कभी कोई आँच भी न आए

वज़ीर ही को है बस इजाज़त कि जिस तरफ़ भी वो चाहे जाए

मैं सोचता हूँ जो खेल है ,इसमें इस तरह का उसूल क्यों है

प्यादा जो अपने घर से निकले पलट के वापस न जाने पाए

मैं सोचता हूँ अगर यही है उसूल तो फिर उसूल क्या है

अगर यही है ये खेल, तो फिर ये खेल क्या है

मैं इन सवालों से जाने कब से उलझ रहा हूँ

मिरे मुखालिफ़ ने चाल चल दी है
और अब मेरी चाल के इंतेज़ार में है।

https://youtube.com/playlist?list=PLD787A9F467130846

पुस्तक समीक्षा - “आँजनये जयते”


शिवांग श्रीवास्तव 
विद्यार्थी , पत्रकारिता और जनसंचार विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय  

लेखक : गिरिराज किशोर 

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन

पृष्ठ : 168

मूल्य- 150 

हनुमान कथा पर आधारित उपन्यास “आँजनये जयते” प्रसिद्ध दिवंगत साहित्यकार पद्मश्री गिरिराज किशोर जी  का मिथकीय उपन्यास है। साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारतेन्दु पुरस्कार व अन्य कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित लेखक का यह उपन्यास राजकमल प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है। लेखक ने कथा का आधार तुलसीदास की रामचरितमानस को रखा है तथा संकटमोचन हनुमान के चरित्र व संघर्षों को अपने दृष्टिकोण से रखने की कोशिश की है। 

उपन्यास का नाम आँजनये जयते रखने व हनुमान को आँजनये  नाम से संबोधित करने पर लेखक ने तर्क दिया कि “हनुमान नाम का मैंने इसलिए उपयोग नहीं किया क्योंकि उससे वही वानर की आकृति सामने आएगी जो परंपरागत रूप से हमारे मस्तिष्कों मे जमी हुई है”। लेखक ने हनुमान को वानर या कपीश(अर्थात बंदर) जाति का न मानते हुए उन्हे एक वनवासी व वानरवंशी समुदाय से आने वाले मनुष्य की तरह चित्रित किया है। इसी तरह उन्होंने जाम्बवन को रीछ न मानते हुए उन्हे रक्ष जातीय समुदाय का बताया है।

लेखक ने उपन्यास के आरंभ मे स्वयं अंजनी पुत्र आँजनये द्वारा अपने वनवासी व वानरवंशी होने का तार्किक वर्णन करते हुए दिखाया गया है ,  इसके साथ ही उनके बाल्य काल में की गई क्रीडा व ऋषि मुनियों व देवताओं से वेद -वेदांग की शिक्षा ग्रहण करने के बारे मे बताया है । लेखक ने अपने व्यक्तिगत मतानुसार आँजनये जैसे राजनय के ज्ञाता , धर्म - ज्ञानी , अद्वितीय वीर के वानर प्रजाति के होने पर संशय किया है।

उपन्यास की शेष कहानी मूल रामकथा मे बगैर छेड़छाड़ किए सीता-हरण ,लंकादहन, राम रावण युद्ध सीता वनवास व उत्तरकांड से होकर गुजरती है। सम्पूर्ण कथा मे अंजनी पुत्र हनुमान की  वीरता , चंचलता,अद्भुत ज्ञान ,समर्पण, व भक्तिभाव का आलौकिक चित्रण किया गया है।

उपन्यास के अंत मे उत्तरार्ध व क्षेपक नामक दो भाग  लिखे गए हैं , जिनमे माता सीता की पुनः परीक्षा व  धरती की गोद मे समाहित होने का मार्मिक वर्णन किया गया है । आँजनये को माँ सीता के निष्कासन की सूचना ज्ञात होने के बाद वे श्री राम के समक्ष अपना विरोध दर्ज़ कराते हैं और अपने प्रभु को राजधर्म व निजी जीवन के दयित्वों की याद दिलाते हैं।

लेखक ने एक सीमा तक ही हनुमान कथा को नया स्वरूप देने की कोशिश की है ,बाकी शेष कथा मूल रामचारितमानस की ही है । प्रस्तावना मे लेखक ने भी कथा की मूल भावना को बिना बदले , कहीं कहीं स्थितियों के व्याख्या की बात स्वीकारी है। कुछ जगह जैसे लेखक जटायु व उनके भाई को गिद्ध नहीं मनुष्य कहते हैं और उनकी विलक्षण प्रतिभा को संभवत: तत्कालीन विज्ञान की देन बताते हैं , ऐसा स्पष्टीकरण वह उपन्यास के अन्य अद्वितीय दृश्यों व शक्तियों के लिए करने से बचते हैं। 

उपन्यास की लेखन शैली सहज व पाठक को बांधे रखने वाली है । चूंकि राम कथा जनमानस मे विख्यात है तो पाठक के लिए लेखक के हनुमान व रामकथा  को लेकर अलग दृष्टिकोण को जानना नवीनता का अनुभव कराता है।

पुस्तक समीक्षा : फ़ैज़ - "चले चलो कि वह मंज़िल अभी नहीं आई"

समीक्षाकर्ता - प्रखर श्रीवास्तव
स्वतंत्र पत्रकार एवं 
लेखक

13 फ़रवरी 1911 को स्यालकोट पंजाब में जन्मे फ़ैज़ साहब से वरिष्ठ अधिवक्ता व ऑल इंडिया लॉयर्स यूनियन के पदाधिकारी रहे सईद नकवी जी कि कोई निजी मुलाकात ना होने के बावजूद महज़ एक मुशायरे में सामने से सुनने और तमाम रात किताबों-कैसेटो के माध्यम से गुनने के बाद परिवर्तन प्रकाशन से किताब के रूप में निकली वैचारिक श्रंखला को पाठकों द्वारा काफी सराहा गया, यह फैज़ साहब की रचनाओं का संकलन ही नहीं बल्कि उनकी रचनाओं के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले वैचारिक उथल-पुथल की आज़ाद अभिव्यक्ति है |


अपने लेख की शुरुआत में नकवी साहब ने बड़ी ही खूबसूरती से शोषितों और वंचितों के वकील मुंशी प्रेमचंद और तरक्की पसंद लेखक फैज अहमद फैज का बारीक तुलनात्मक जिक्र किया हैजिसमें यह बताया गया है कि फैज ने अपनी शायरी में मुंशी प्रेमचंद्र की कही बात " हमें ऐसा अदब दरकार है जो लोगों को जगाए न कि सुलाये " इस बात का हमेशा अमल किया है |

पेज नंबर 5 पर मोहब्बत में मशगूल इश्क का जो सफरनामा शायरी के रूप में दर्ज हैवो भ्रमित प्रेमियों के लिए गाइड की तरह हैजिसमें शायर अपनी महबूबा को अपनी मजबूरी पर यकीन दिला रहा है उम्र के जिस पड़ाव पर और जिस तीव्र भाव से यह शायरी फैज़ की कलम से उपजी आगे चलकर वह वास्तव में उनके जीवन का अहम मोड़ साबित हुआ |

वही पेज 7 पर मौजूद गज़ल इस बात की दास्तां सुनाती है कि कैसे क्रांति का रास्ता इश्क की मंजिल से होकर गुज़रता है |

76 पन्ने की इस किताब में नकवी साहब ने फ़ैज़ की तमाम जिंदा शायरी को शुमार करने के साथ ही पाकिस्तान में रावलपिंडी साजिश केस में फैज़ साहब की गिरफ्तारीउनकी गिरफ्तारी पर जो अन्य बड़े लेखकों व संपादकों ने लिखा वो उनका जेल जीवन और उनके जेल जीवन के दौरान के मूड की शायरी की बारीक विवेचना की हैजिन शायरी में कहीं भी निराशा या विफलता का भाव नहीं दिखता...जिससे अवसाद व डिप्रेशन में जा रही गूगल से दुनिया घूम लेने वाली युवा पीढ़ी ये महसूस कर सकती है कि एक व्यक्ति जेल की चार दीवारों में अपनी अभीव्यक्तियों को कैसे पंख देता है |

इस किताब से हमें फैज़ की उन रचनाओं के बारे में भी जानने को मिलता हैजो कि उन्होंने फिलिस्तीनअमेरिका और बांग्लादेश जैसे देशों में हो रहे अत्याचारोंवहाँ की समस्याओं और वहाँ के समर्पित शहीद क्रांतिकारियों पर लिखी थी |

इस किताब में फैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरियां जितनी जरूरतमंद और चुनिंदा हैंउतने ही महत्वपूर्ण सईद नकवी के लेख भीकिताब के तीसरे लेख में बड़ी ही भावुकता के साथ उल्लेखित है कि "करोड़ों लोगों की तरह 14 अगस्त 1947 को फैज़ भी बगैर पूछे पाकिस्तानी हो गए लेकिन उनकी शायरी ने विभाजन कभी स्वीकार नहीं किया" इस किताब में फैज़ साहब की हिंदुस्तान की राजनीति और आर्थिक आज़ादी के संकल्प के विषय में भी चर्चा की गई है |

क्यों ना जहां का गम अपना ले " फैज़ साहब ने अपनी इस रचना को न सिर्फ रचना तक सीमित रखा बल्कि जीवन भर उसका अमल भी कियाआज के इस दौर में शायद ही कोई ऐसा हो जो अपने समाज का गम अपनाने की हिम्मत और हौसला रखता हो |

किताब की क़ीमत 60₹ हैकिताब की भूमिकापरिशिष्ट और प्रस्तावना में इजाफा किया जा सकता थाकिताब के कवर पेज के आधे हिस्से पर छपी नज़्म "हम देखेंगे" कवर पेज की रचनात्मकता के पैमाने पर उसे बोझिल बना रही हैकिताब के पन्नों की गुणवत्ता व बाइंडिंग बेहतरीन है |

फैज़ की शायरी अपने पाठकों को विशेष दृष्टिकोण से प्रभावित न करकेमौलिक विचार को बढ़ने की आजादी देती है जिस प्रक्रिया के मध्य इस किताब में मौजूद लेख कई बार बाधा बन सकते हैं तो वहीं नवाअंकुरो के लिए एक रोचक सेतु का काम भी कर सकते हैं परंतु इस प्रकार का प्रयोग पाठक पक्ष के हितों के लिए बेहद रचनात्मक इसलिए है क्योंकि प्रस्तुतकर्ता ने लेखक की लेखनी के साथ अपने अनुभवों में तमाम तथ्यपरक महत्वपूर्ण जानकारियों का इजाफा भी किया है|

सहमति-असहमति के भावों के बावजूद भी इस किताब को पढ़ने की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुंचकर पाठक अपने वैचारिक भूख को शांत भी कर सकते हैं अथवा गमों को अपना कर नई भूख पैदा भी कर सकते हैं|

BOOK REVIEW : “I’ll Overcome, Someday”

 “I’ll Overcome, Someday” Book says a powerful thought of resilience, hope, and determination.

This book is by Arun Kumar Misra is an engaging autobiographical narrative that takes readers on a journey through the author’s life, from his carefree childhood to the turbulent teenage years on account sad and sudden passing away of his father compelling him to live a life of penury, and ultimately to the loss of his wife just before his retirement which brought his life almost to a pause. Misra’s book explores life’s unpredictability and the challenging journey that we all must undertake. The book reflects that we must know somewhere something unwanted happening with someone and navigating through these tough waters is the art of life.

The book emphasises that death is a comma not a full stop and one’s life doesn’t end with the death of a loved one. The trauma and fear that envelopes the sufferer can be taken care of only by facing it head on and taking the first bold step thinking victory lies beyond fear. It also suggests that though the life never becomes normal after losing someone beloved but there is always a new normal. The book says that those who love us never go away and walk with us always holding our hands, and we simply need to have a spiritual sense to feel their presence.
The writing style of Misra is effortless and direct, enabling readers to connect with his story easily. He delves deeply into the complexities of life, revealing the intricate and sometimes painful path that we all must navigate. Through his powerful message of hope and courage, he inspires us to confront our fears and overcome the obstacles that life throws our way.

The book’s exploration of relationships and connections is particularly poignant, showcasing the true beauty of life and the inevitability of death. Misra’s narrative is both emotional and uplifting, reminding us that even in the face of tragedy, there is always hope for a brighter tomorrow.

Publisher : Blue Rose One Publishing House
Page : 190
₹ – 240

पुस्तक समीक्षा : लौट के बताता हूँ - डॉ मुकुल श्रीवास्तव

किसी भी यात्रा का मूल उद्देश्य मनोरंजन है, और मनोरंजन कि कई शैली हैं, पारिवारिक मनोरंजन, व्यापारिक मनोरंजन या वैचारिक मनोरंजन...

वैचारिक मनोरंजन की आकांक्षा रखने वाले लोग ही अक्सर सैद्धांतिक यात्रा वृतांत लिपिबद्ध करने में सफल हो पाते हैं, ऐसे ही वैचारिक पक्ष का झंडा उठाए एक सशक्त हस्ताक्षर हैं लखनऊ के डॉ. मुकुल श्रीवास्तव, 2 दशकों से अधिक पत्रकारिता शिक्षण में सक्रिय होने के साथ ही पाठक हित में अब तक 4 चर्चित पुस्तकें लिख चुके हैं, जिसमें से पाठकों द्वारा सर्वाधिक सराहे जाने वाली पुस्तक यश प्रकाशन द्वारा प्रकाशित "लौट के बताता हूँ" है|

वैचारिक मनोरंजन की बात की पुष्टि लेखक द्वारा लिखे प्रस्तावना के पहले पैरा में उल्लेखित "मैं यात्रा अकेले करना पसंद करता हूँ पर किसी भी यात्रा में अकेले नहीं होता हूँ" इस कथन से प्रमाणिकता के साथ अभिव्यक्त होती है|

पुस्तक की यात्रा की शुरुआत डॉ मुकुल ने आध्यात्मिक मेंढक मंदिर से की है, जहां वह साल के आखिरी दिन थे|

लखीमपुर-खीरी का मेंढक मंदिर , शिव पूजा का तांत्रिक मंदिर है जिसे चाहमान वंश के राजा बख्श सिंह ने 1860 से 1870 के बीच बनवाया, विशेषता यह है कि वहां नंदी बैल खड़ा हुआ है और वह मंदिर मेंढक के शरीर पर बना हुआ है| मंदिर की लंबाई चौड़ाई ऊंचाई दीवाल की नक्काशियों का बेहद बारीक वर्णन किताब में किया गया है|

इंसानी भूख की इंतेहा और लालच के पैमाने को जीवंत रूप में लेखक ने टिहरी यात्रा के संस्मरण साझा किए हैं जहां नए शहर बनाने के लिए पहाड़ काटे गए, देश के सबसे बड़े बांध के नाम पर एक पूरा शहर डूबा दिया गया, जलस्तर कम होने पर कुछ कहने की चाह रखने वाले राजमहल के खंडहर - और अपनी आपबीती सुनाने सूखे पुराने पेड़ आज भी देखे जा सकते हैं|

धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की यात्रा करना अगर आप मात्र वैष्णो देवी के दर्शन करके आ जाने को समझते हैं तो आप गलत हैं, कश्मीर यात्रा कि विवेचना पाठकों के मानसिक पटल पर कश्मीर और कश्मीरियों के प्रति मौजूद तमाम वहमों को तोड़ती है और परिचय कराती है हादसों को आमंत्रित करने वाले खूनी नाले से तो कहीं जवाहर टनल से और नगरों में लगने वाले पुर और वहां के इलाकों  ( हजरत बल, गांदर बल,खन्ना बल ) में लगने वाले बल के फर्क का कारण भी पता चलता है और फोटो के माध्यम से नकली सूर्य मंदिर, 400 साल पुराना चिनार का पेड़ और कश्मीरी पंडितों के खाली मकान की झलक भी देखने को मिलती है|

अमेरिका यात्रा के पन्नों पर लेखक ने एक वाक्य में बड़ी गहरी बात कही कि "हिंदुस्तान अपने ही इतिहास से चिपका रहा और अमेरिका अपना भविष्य बनाता रहा" खुद व खुद के समाज के प्रति आत्म आलोचना करने की दृष्टि और स्वीकारने की शक्ति रखने वाला व्यक्ति ऐसी बात कह सकता है| पेज 141 पर ब्लॉगर सरताज समीर लाल की दिल छू लेने वाली पंक्तियों को पढ़ने के लिए आपको किताब उठानी पड़ेगी, लेकिन पाठक हित में लेखक की अमेरिका यात्रा से कुछ सलाह जरूर काम आएंगी कि

  • कम मसालों के व्यंजन बेस्वाद लग सकते हैं
  • टाइम जोन इफेक्ट का ध्यान रखें,जिससे दिल्ली से न्यूयॉर्क की यात्रा के बाद लेखक के जीवन से एक रात गायब हो गई
  • बिजली व्यवस्था अलग होने के कारण,कोई भी भारतीय उपकरण बिना कनवर्टर लगाए नहीं चल सकते...

डॉ मुकुल ने दुकान से लिए कनेक्टर का प्रयोग बिना रुपए दिए, अमेरिकी सरकार की नीतियों के सहयोग से कैसे किया यह जानने के लिए भी आपको किताब उठानी पड़ेगी|

सूर्य के जागने से पहले जागो शाम ढलने से पहले भोजन और रात में सिर्फ दूध पियो पश्चिमी सभ्यता को मत अपनाओ यही तमाम बातें सुनने और आगे बढ़ाने वाले लोगों को पेज 144 पर यह जानने को मिलता है कैसे सारा अमेरिका शाम 7:00 बजे भोजन कर चुका होता है |

इटली की वादियों में जाएंगे तो जानेंगे कि "अपनी मिट्टी -अपना कपड़ा-अपनी भाषा" जैसी बातों को जमीनी हकीकत का रूप कैसे दिया जाता है ? , आखिर क्यों फिल्म निर्देशक यूरोप में शूटिंग करने को बेताब रहते हैं ? और बिना किसी रिनोवेशन के कैसे आधुनिकता को बरकरार रखते हुए प्राचीनता को बचाया जा सकता है ? , इटली में क्यों पाकिस्तानी व्यक्ति ने " ताजमहल " नाम का रेस्टोरेंट खोला ?, अवैध तरह से आया एक गुजराती युवक कैसे इटली में व्यापार कर रहा है ?, बोलोना विश्वविद्यालय में छात्रों के लिए बार क्यों है ? और इटली की सड़कों पर खूबसूरत लड़कियां कचरा क्यों उठाती हैं ?

इन तमाम सवालों का जवाब डॉ मुकुल के इटली यात्रा से मिलते हैं, उनका कहना है कि “यात्री विकसित देशों की यात्रा का लुफ्त तभी उठा सकते हैं यदि स्थानीय मुद्रा को भारतीय रुपयों में बदलकर ना देखें|”

यात्रा वृतांत में लिए गए किसी क्षेत्र में यदि आप जा चुके होंगे, तो बिना उद्देश्य सिर्फ यात्रा को जीने के लिए यात्रा करने वाले डॉ• मुकुल के शब्दों के माध्यम से पुनः जाकर देखेंगे तो पाएंगे कि आप कितना कुछ छोड़ आए और कितने पक्षों से वंचित रह गए...

देश के तमाम प्रदेशों व विदेशों के कुछ देशों के बारे में बारीक जानकारी संकलित कर लिपिबद्ध करने के साथ ही डॉ मुकुल ने अपने पैतृक निवास यानी अपने गांव अपने पिता अपने चाचा व बुआ की शादी जैसी तमाम निजी रिश्तों कि बातें बताई हैं जिसकी झलक हम सभी के परिवारों में होंगी पर उसे साझा करना वो भी किताब में बड़ा मुश्किल काम है | पेज 101 पर गांव की यात्रा कई मोड़ों पर असहज करेगी , तो कई जगह भावुक भी...

 इस निजी लेख से दो असहमति भी पनपी

1) डॉ मुकुल गंभीरता से कह रहे हैं कि मेरी "ये आखिरी गांव यात्रा थी अब दोबारा इस जीवन में गांव आना नहीं होगा" जबकि किताब के एक भाग में उन्होंने यात्रा की तुलना जीवन से करते हुए कहा कि "मेरे जीवन का विशेष लक्ष्य क्या है मुझे नहीं पता मै सफर को जीते चल रहा हूँ - जाने जीवन के रास्ते कहाँ ले जाएं" यह दोनों बातें विरोधाभासी हैं|

2) पेज नं 104 पर "मेरा भी यही तरीका है जो चीज तकलीफ दे उसे भूल जाओ" इस कथन पर मेरी निजी असहमति इसलिए है क्योंकि मानव मन के भूलने की कोशिश करने पर वह चीज अधिक याद आती है, अत्यधिक कोशिश पर यदि मन के किसी कोने में वो दब भी जाए तो संकेतवश याद आने पर बहुत कचोटती है इसलिए तकलीफों को भुलाने की जगह उलझनों को सुलझाना ज्यादा बेहतर तरकीब है जो पाठकों को सुझाई जा सकती थी |

लेखक ने शांकओं , उमंगो और स्वाभाविक डर की अभिव्यक्ति बड़ी ही सहजता से की है जो कि सफल रेखाचित्र बनाने में सहयोगी साबित हुई |

यश प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ₹ 200 की क़ीमत पर 210 पन्नो की इस किताब में औसत दर्जे के कागज इस्तेमाल किया गए हैं, किताब के आकर्षक कवर पेज को खूबसूरती अफताब अनवर जी ने दी है, कवर पेज पर दर्शाया गया ट्रेन की खिड़की से बाहर झांकने का दृश्य किताब के कंटेंट के साथ पूर्ण न्याय कर रहा है |

यात्रा वृतांत जैसे विषय पर आधारित रोचक संस्मरण के सफर की किताब में एक भी कलर्ड फोटो का ना होना, किसी लज़ीज़ शाही व्यंजन में नमक ना होने जैसा है, जो कि पाठकों के असंतोष का कारण भी बन सकता है जबकि प्रत्येक लेख में मौजूद तस्वीरों की संख्या बताती है कि डॉ मुकुल ने सभी तस्वीरों को स्वयं बड़ी दिलचस्पी से खींचा है, अन्यथा आजकल के तमाम ब्लॉगर तो तस्वीर खींचने की मेहनत से बचकर गूगल का सहारा लिया करते हैं | डॉ मुकुल ने बड़ी ही इमानदारी के साथ पेज नंबर 12 पर प्रकाशित खड़े हुए नंदी की तस्वीर को गूगल से लेने के साथ ही रेखांकित कर बताया भी है, ये शब्दों का ईमान उन लेखकों के समक्ष नमूना है जो कॉपी पेस्ट और एडिट के भरोसे लिख रहे हैं |

यायावरी के इतिहास पर नजर डालें तो हिंदी यात्रा साहित्य के पितामह  कहे जाने वाले सशक्त हस्ताक्षर राहुल सांकृत्यायन माने जाते है| ‘मेरी लद्दाख यात्रा’, ‘लंका’, ‘तिब्बत में सवा वर्ष’, ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘जापान’, ‘मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘इरान’, ‘रूस में पच्चीस मास’, ‘किन्नर देश में’, ‘चीन में क्या देखा’ आदि इन कृतियों के माध्यम से चर्चित दर्शनिक रहे राहुल सांकृत्यायन ने यात्रा विधा को विकसित करने में अहम भूमिका निभाई | सांस्कृतिक - भूगोलिक एवं सामाजिक रूप से धनी देश भारत, जहाँ के कोने कोने में किस्से कहानियां और रोमांच व्याप्त है | ऐसे देश में बड़ी संख्या में समृद्ध वैचारिक विद्वान और कलाकारों और घूमक्कड़ी सेल्फीबाजो के होने के बावजूद भी यात्रा वृतांत के प्रति लेखकों और पाठकों दोनों की कमी महसूस की जा सकती है|

लाइक कमेंट और व्यू की दुनिया का ये हांसिल जरूर रहा कि इस लुभावन के चलते लोगों में यात्रा वृतांत के प्रति उभरती हुई रुचि पैदा हुई है|

डॉ मुकुल ने पुस्तक में तमाम राष्ट्रवादी लेखकों की तरह अपने देश को दूसरे देशों से महान व सर्व शक्तिमान ना दर्शा कर स्वाभाविक विचारों को लिपिबद्ध किया है , मानसिक शांति की तलाश के लिए यात्रा करना व 18 साल पहले बिछड़े स्कूली दोस्त अजय की तलाश में उदयपुर पहुंच जाना व प्रस्तावना के अंतिम शब्दों में का अंत जिस संकोच के भाव से किया वो डॉ मुकुल के जीवन के भावनात्मक पक्ष को भी दर्शाता है|

किताब में डॉ मुकुल ने अपने मित्र सौगत बिश्वास का जिक्र किया कि उनके सलाह सुझाव से पुस्तक की संरचना हुई, इसलिए उनका नाम उल्लेखित यह बिना यह समीक्षा अधूरी होती

कहा जाता है कि समाज का प्रतिबिंब वहाँ के नागरिकों से है, ठीक उसी तरह यात्रियों कि माँग के चलते पर्यटन स्थलों का बढ़ता बाजार वहाँ की मौलिक व प्राकृतिक प्रस्तुति को घटाता है, इस किताब से ये सीखा जा सकता है कि सफर करने और सफर में बहने उसे जीने में कितना अंतर है|

पुस्तक के आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि यायावरी के सफर में विचार चौगुनी रफ्तार से  गति पकड़ते हैं व मंजिल तक बहुत कुछ दे जाते हैं|

जीवों के जीवन की यात्रा मां के गर्भ से चल रही है या पूर्व जन्म से... ये दर्शन की बात हो सकती है मगर तर्क कि नहीं, समय की छाया बन कर निरंतर चल रही यात्रा के बीच यह सोचना कि यात्रा क्या है, अपने आप में मुश्किल है|  कवि गोपाल दास नीरज का लिखा याद आता है कि

“जितना कम सामान रहेगा , उतना सफर आसान रहेगा

जितनी भारी गठरी , होगी उतना तू है हैरान रहेगा”

यह किताब लेखन और शोध से जुड़े व्यक्तियों के साथ उन लोगों को जरूर पढ़नी चाहिए जो हर बार घूमने जाने का प्लान तो बनाते हैं पर जा नहीं पाते...