Saturday, March 2, 2024

शतरंज के खिलाड़ी - "तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विश्लेषण" - By PRAKHAR

  

एक जमाने में कहा जाता था कि जिसको ना दे मौला उसको दे सुराजुद्दौला, सुराजुद्दौला अपने समय के दानवीर राजा थे उनके शासनकाल के बाद... लखनऊ में मौजूद तमाम मीनार और इमारतें उन्हीं के काल में बनी उनका एक शेर भी था " जहां में जहां तक जगह पाइए, इमारतें बनाते चले जाइए "

प्रेमचंद्र की "शतरंज के खिलाड़ी" कहानी वाजिद अली शाह के समयकाल की है | कहानी का मूल भाव दर्शाता है कि किस प्रकार शहर के संरक्षण को नज़रअंदाज करते हुए, सियासी सूरमाओ ने अपनी वर्चस्व की लड़ाई शतरंज के लिए लड़ी, रफ्तार से तबाही की ओर बढ़ते समाज से अधिक तीव्रता के साथ दोनों बादशाहों ने एक दूसरे की जान ले ली | दोनों का आपसी रिश्ता जहाँ मित्रता को रेखांकित करता है तो वहीं मूर्खता को भी प्रकट करता है, तो एक और कहानी अंग्रेज शासक डलहौजी की क्रूरता का भी जिक्र करती है |

किताब में 

इस कहानी में लखनऊ को शाही विलासिता में डूबा हुआ एक नगर दिखाया गया है जहाँ गरीब हो या अमीर सब मस्ती में शिरकत करते हैं | कोई कारीगरी करता तो कोई मजलिस सजाता, फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियां न लेकर अफीम खाते...

शतरंज का शुमार इस शहर में सर चढ़कर बोलता था और तर्क दिया जाता कि शतरंज, ताश आदि खेलने से विचार शक्ति का विस्तार होता है |

बड़ी जागीर वाले बादशाह मिर्जा सज्जाद अली और बादशाह मीर रोशन अति घनिष्ट दोस्त होने के साथ ही शतरंज के ऐसे शाही खिलाड़ी थे जिन्हें ना तो अपने जीविका की चिंता थी ना ही समाज की..

एक की बेगम इस बात से खफा रहती थी कि उनके पुरुष उन्हें शतरंज के कारण समय क्यों नहीं देते हैं तो दूसरे की बेगम इस बात से खफा कि मेरे पुरुष घर से बाहर क्यों नहीं जाते हमेशा घर पर हुक्का पीते हुए शतरंज की चालें चला करते हैं |

रईसों का यह हाल था तो प्रजा की अल्लाह ही मालिक, प्रजा दिनदहाड़े लूटी जाती, बादशाह शतरंज के खेल को कम सियासी नहीं समझते थे बल्कि ऐसे प्यासे शूरमाओं की तरह लड़ते थे जैसे मानो असल युद्ध चल रहा हो  | 

इसलिए लखनऊ की बादशाहत का शतरंज के हातों तबाह होना निश्चित ही था |

एक बार जब दूसरी फौज ने हमला करने का फरमान भेजा तो दोनों बादशाह बचते हुए गोमती किनारे जा जमे और शतरंज की चालें जारी रखीं, मानो जैसे अक्ल और हिम्मत दोनों शतरंज ने चुरा ली हों |

राजनीतिक डांस के चलते क्षेत्र में संग्राम जैसे हालात थे, और लोग बच्चों को लेकर देहात की ओर भाग रहे थे |

ऐसे में जनाब वाहिद अली शाह पकड़ लिए गए और सेना उन्हें किसी अज्ञात जगह ले जाने लगी |

लखनऊ मानो जैसे ऐश की नींद सो रहा था, स्वाधीन राज्य के राजा की पराजय इतनी शांति से शायद इतिहास में ना हुई होगी कि जब ना ही मार-काट हुई, ना ही एक बूंद खून गिरा...

उधर विलास से भरे दोनों बादशाह मित्र शतरंज की चाल के दांवपेच में हुई नोकझोंक के चलते आपसी विवाद में पड़ गए, जो कि बढ़ते बढ़ते अहम Ego और व्यक्तिगत वीरता की लड़ाई में बदल गया, और तलवार बाजी में एक दूसरे को हराते हराते वो दोनों जीवन से हाथ धो बैठे.

गोमती पार नवाब सिराजुद्दौला की पुरानी वीरान मस्जिद में दोनों बादशाह शतरंज के अपने-अपने वजीर की रक्षा में प्राण गवा चुके थे, अंधेरा हो चला था बाजी बिछी हुई थी, सिंहासन पर बैठे शतरंज के बादशाह मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे |

किताब में जो छिपाया गया

किताब में अंग्रेज अधिकारियों और उनकी चाल बाजियों के बारे में तनिक भी नहीं बताया गया है, इसका कारण शायद प्रेमचंद्र जी का संकेतिक लेखन रहा होगा |

• किताब में दो महत्वपूर्ण बातों का विवरण नहीं था पहला कि वाजिद अली शाह द्वारा अपने पसंदीदा ताज को जब लंदन की एक प्रदर्शनी भेजा गया तो तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने लिखा था " the rich at Lucknow who has sent his crown to the exhibition, would have done his people and us a great service if he sent his head in it ; never missed it, that is the cherry which will drop into his mouth one day " जिसका अर्थ है "लखनऊ के जिस राजा ने अपना मुकुट भेजा है बहुत अच्छा होता कि वह अपना सिर भी भेजता अवध के सरताज का सर चैरी की तरह हड़प लिया जाए |"

• और दूसरा जब नवाब सुजाउदौल ने हिमाकत के चलते अंग्रेजी सेनाओं को चुनौती दे डाली और बदले में हार हासिल हुई, लेकिन अंग्रेजों की दरियादिली यह थी कि उन्होंने रियासत लेने के बजाय 50 लाख रुपए हर्जाने में लिए और दोस्ताना शपथ पत्र में दस्तखत करवाए, जिसमें उल्लेखित था कि जब भी अंग्रेजों को किसी जंग में पैसे की जरूरत पड़ेगी अवध के दरबार खुले रहेंगे |

 फिल्म 

Devki Chitra Presents || Based on story By Prem Chandra

- Amjad Khan as Wajid Ali Shah, - Ricchard Attenborough as general outram, - Sanjeev Kumar , - Saeed Jafreey , - Shabana Azmi , - Fareeda Jalal , - Veena , - Devid Abraham, - Victor Banerjee , - Farooq Shekh , - Tom Alter , - Leela Mishra , - Barry John, - Samarth Narain.

फ़िल्म के इंट्रो में कहानी का जिस्ट समझ आने का एक कारण यह भी हो सकता है कि उसकी रूपरेखा मैंने किताब में पहले पढ़ रखी है, मगर फर्क उतना ही महसूस होता है जितना कि किसी एक खबर को पेश करने में अखबार की भाषा शैली और टेलीविजन कार्यक्रम की स्क्रिप्ट की भाषा शैली में होता है |

किताब पढ़ कर दिमाग ने जो छवियां बनाई, उस छवियों को चार चांद लगा कर के मलाई मक्खन लगा के फिल्म में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया |

फिल्म में कई जगह बात को समझाने के लिए ब्लैक एंड व्हाइट ओल्ड एनिमेशन का भी प्रयोग किया गया है, जोकि हल्के अंदाज में दर्शक की रुचि बनाए रखने में प्रभावी है |

फिल्म के रोमांचक दृश्य जो किताब में न थे |

•} फिल्म में 49वें मिनट पर एक बुजुर्ग वकील की मृत्यु के बाद 5 मिनट लम्बा गाना फिट किया गया है जो कि कुछ इस प्रकार है

" कान्हा मैं तो से हारी छोड़ो हरि, सुनो बिहारी नहीं मैं दूंगी तुम्हें गारी " अमूमन आजकल की फिल्मों में मृत्यु पश्चात कोई गीत कम ही मिलता है जिसमें ईश्वर से सवालिया शिकायत की गई हो |


शायद गाने की गुंजाइश बनाए रखने के लिए ही फिल्म निर्देशक ने इससे ठीक पहले वकील की मृत्यु का सीन डाला और बादशाह मिर्जा सज्जाद अली के शतरंज की गोटियां चूरवा दीं, शतरंज खेलने के लोग के कारण ही दोनों मित्र बादशाह उस बुजुर्ग वकील के घर पहुंचे थे |


परंतु ऐसा कोई भी किस्सा किताब में नहीं मिलता 

•} फिल्म में 10 मिनट 26 सेकंड पर अंग्रेज रेसिडेंट जनरल उटरम जब अपने खबरिया से राजा के बारे में कंफर्म करते हुए पूछते हैं कि Why he Prays 5 time a day ? & What is Mushayra ? उनका खबरिया उन्हें बताता है कि A Mushayra is a gathering of poet., & concept of five times prayer is known as Namaz तभी मस्जिद से नमाज की आयतों का उपचार सुनाई देता है और जनरल उटरम कहते हैं कि तुम तो यही के हो, यहां की भाषा जानते हो तो यह जो आवाज सुनाई दे रहे हैं इसका अनुवाद बताओ... जवाब मैं खबरिया सुनाई पड़ रही कुछ आयतों का अर्थ हिंदी उच्चारण में बताता है जो कि फिल्म का बेहद खूबसूरत दृश्य है | जिसके बाद राजा की तमाम आदतों और नगर के हालात तो बर्बाद होने लगती है |

•} फिल्म में 19वें मिनट में एक दफा शतरंज के चलते खेल के बीच जब एक बुजुर्ग मुंशी का महल में आना हुआ, तो उन्होंने बताया कि यह इरानी खेल नहीं है बल्कि भारत से विलायत तक पहुंचा, किसको खेलने के दो तरीके हैं एक हिंदुस्तानी और एक अंग्रेजी, अंग्रेजी तरीके में फर्क सिर्फ इतना है कि पैदल दो घर चलता है तो वही वजीर को रानी का जाता है जो की आमने सामने खड़ी होती हैं |

 •} 7 फरवरी 1856 को जब जनाब वाजिद अली शाह सत्ता छोड़ी और अवध पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हुआ तब वाजिद अली शाह को फिल्म में यह गाते दर्शाया है कि  "जब छोड़ चले लखनऊ नगरी, कहे हाल के हम पर क्या गुज़री" 


किताबी हिस्सा जो फिल्म में छिपाया गया

•} किताब में ऐसा दर्शाया गया है कि जब बेगम इस बात से खफा होती हैं कि उनके पुरुष उन्हें शतरंज के कारण समय नही देते तो हरिया को भेजकर कई दफा उनको बुलाने का प्रयास करती, कई प्रयासों के बाद जब वह आ जाते हैं तो उनसे नाराजगी व्यक्त करती और किताब अनुसार क्रोध में जा कर शतरंज की गोटियां बाहर फेंकते हुए गेट बंद कर देते हैं और उनके साथी खिलाड़ी बाहर खड़े रह जाते और गुस्से की आहट सुनकर चुपचाप रवाना हो जाते....

जबकि फिल्म में महारानी को क्रोध में तो दिखाया है पर इतना नहीं कि उन्होंने साथी खिलाड़ी के मुंह पर गेट बंद कर दिया हो और गोटियां बाहर फेंक दी हों, बल्कि ऐसा दिखाया गया है कि महारानी गुस्से में तो है पर वह अपने क्रोध को बड़े ही मासूमियत से व्यक्त कर रही हैं, उसमें उनकी रोमांस करने की चाहत की झलक भी प्रस्तुत की गई है पर अंत में वह रात भर जाग कर अपने क्रोध की अभिव्यक्ति करती हैं |

•) "उल्फत ने तेरी हमको ना रखा कहीं का दरिया का ना जंगल का, हवा का ना ज़मीं का" यह शेर मीर साहब ने फिल्म के अंत भाग में आपसी लड़ाई से पहले कहा था, जब की किताब में शेर का कोई जिक्र ना था | हो सकता है बड़े पर्दे मांग पर ये शेर डाला गया हो लेकिन किताब के पेज नंबर 18 पर लिखा था कि " दोनों जख्म खाकर गिरे और दोनों ने वहीं तड़प-तड़प कर अपनी जान दे दी | अपने बादशाह के लिए जिनकी आंखों से एक बूंद पानी न निकला उन्हीं दोनों प्राणियों ने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिए | अंधेरा हो चला था | बाजी बिछी हुई थी | दोनों बादशाह अपने अपने सिंहासन पर बैठे मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे | "


 जबकि फिल्म में दोनों के बीच तीखी नोकझोंक होती है और बंदूक भी चलती है मगर फिर मामला सुलझ जाता है किसी की मृत्यु नहीं होती है और फिल्म का अंत अच्छी सिनेमैटोग्राफी के साथ वजीर की गोटी पर फोकस करते हुए 'मल्लिका विक्टोरिया तशरीफ ला रही हैं ' की गूंज के साथ हुआ |







मेरी बात और निष्कर्ष

•> सीरियस फिल्म को भी हमेशा मस्ती के मिजाज से देखा है भले ही उस से बहुत कुछ सीखने को मिला हो या फिर हंसी आई हो, कुछ मौकों पर समीक्षा के नजर से भी देखा पर इस असाइनमेंट के द्वारा एक तुलनात्मक विश्लेषण का अनुभव प्राप्त हुआ जहां न सिर्फ फिल्म का सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष गौर करना था ना सिर्फ किताब जिस पर फिल्म आधारित है उसका सकारात्मक नकारात्मक पक्ष बल्कि साथ ही में दोनों की तुलना भी करनी थी जो कि मेरे लिए निजी रूप से नया अनुभव था |

सच कई बार या शायद हमेशा ही फिल्टर हो कर आता है अनुवादक हो या लेखक, लिखते वही हैं जो दिखाना चाहते हैं ना कि वो जो सच होता है या शायद सच इतना सादा होता है कि बिना बात घूमाए फिराए उसे बेचा नहीं जा सकता |
 एक पत्रकार के तौर पर मेरा सुझाव यह हो सकता है कि जब मुगल साम्राज्य और लखनऊ की नजाकत को फिल्म में जोर दे कर दिखाया गया था, तो उस समय का वह हिस्सा भी शामिल करना चाहिए था जो कि भावी भविष्य में एक उदाहरण बन सकता था, और फिल्म के माध्यम से होता तो शायद और भी जोरदार तरह से...
 वह यह कि उस समय काल में ही वाजिद अली शाह के लखनऊ से बेदखल होने पर अफवाह उड़ी कि अंग्रेज उन्हें लंदन ले जा रहे हैं | तब लखनऊ की औरतों ने कैसर बाग़ में जमा होकर गाया ' हजरत जाते हैं लंदन, कृपा करो रघुनंदन '
यह भाग भी यदि फिल्म में पूरी मौलिकता के साथ दिखाया जाता तो तमाम उम्र तक जीवित रहता...
एक सवालिया शिकायत समाज और सरकार से भी हुई की क्रूर शासक डलहौजी जिसके अत्याचारों से भारतवासी पीड़ित रहे, आजादी के इतने साल बाद भी उसके नाम से इतनी जगह क्यों बनी हुई है ? क्या भला कोई देश गुलामी के प्रतीकों को इस तरह संजो कर रखता है ?
बात जहाँ तक रही शतरंज की तो जावेद साहब की कुछ पंक्तियों के साथ आपसे विदा लेता हूँ |

ये खेल क्या है 

मेरे मुखालिफ़ ने चाल चल दी है  और अब मेरी  चाल के इंतेज़ार में है
मगर मैं कब से सफ़ेद खानों सियाह खानों में रक्खे काले-सफ़ेद मोहरों को देखता हूँ

मैं सोचता हूँ ये मोहरे क्या हैं

अगर मैं समझूँ कि ये जो मोहरे हैं सिर्फ लकड़ी के हैं खिलौने
तो जीतना क्या है हारना क्या

न ये ज़रूरी , न वो अहम है

अगर खुशी है न जीतने की
न हारने का ही कोई ग़म है

तो खेल क्या है

मैं सोचता  हूँ , जो खेलना है
तो अपने दिल में यक़ीन कर लूँ

ये मोहरे सचमुच के बादशाहो-वज़ीर

सचमुच के हैं प्यादे और इनके आगे है
दुश्मनों की वो फ़ौज

रखती है जो कि मुझको तबाह करने के 
सारे मनसूबे सब इरादे

मगर मैं ऐसा जो मान भी लूँ तो सोचता हूँ
ये खेल कब है , 

ये जंग है जिसको जीतना है
ये जंग है जिसमें सब है जायज़

कोई ये कहता है जैसे मुझसे
ये जंग भी है, ये खेल भी है

ये जंग है पर खिलाड़ियों की
ये खेल है जंग की तरह का

मैं सोचता हूँ जो खेल है
इसमें इस तरह का उसूल क्यों है

कि कोई मोहरा रहे कि जाए
मगर जो है बादशाह उसपर कभी कोई आँच भी न आए

वज़ीर ही को है बस इजाज़त कि जिस तरफ़ भी वो चाहे जाए

मैं सोचता हूँ जो खेल है ,इसमें इस तरह का उसूल क्यों है

प्यादा जो अपने घर से निकले पलट के वापस न जाने पाए

मैं सोचता हूँ अगर यही है उसूल तो फिर उसूल क्या है

अगर यही है ये खेल, तो फिर ये खेल क्या है

मैं इन सवालों से जाने कब से उलझ रहा हूँ

मिरे मुखालिफ़ ने चाल चल दी है
और अब मेरी चाल के इंतेज़ार में है।

https://youtube.com/playlist?list=PLD787A9F467130846

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