भारत एक संसदीय लोकतंत्र वाला देश है. भारत का लोकतंत्र बहुत पुराना नहीं है. भारतीय लोकतंत्र महज 62 साल का बालक है. अनेक देशों में लम्बे समय से चल रहे लोकतंत्र के अनुभव भी बताते हैं कि लोकतंत्र को परिपक्व होने में समय लगता है.
लोकतंत्र के मामले में भारत की हर मोर्चे पर प्रशंसा होती है. इन सब खूबियों के बीच ध्यान देने वाली बात भारतीय लोकतंत्र के साथ घटित हुई घटनायें हैं. ये ऐसी घटनायें हैं जो लोकतंत्र की सकारात्मक तस्वीर पेश नहीं करती.
23 मई को भारत के बड़े अखबार "दैनिक जागरण" में जाने माने पत्रकार "कुलदीप नैय्यर" ने लिखा भारत में संसदीय पद्धति की जगह राष्ट्रपति पद्धति का शासन अपनाने पर विचार करना चाहिए. 26 मई को दैनिक "हिदुस्तान" में इसी तरफ इशारा करता हुआ "खुशवंत सिंह" का लेख छपा.
दोनों लोग अपने-अपने समय के विचारक पत्रकार रहे हैं. दोनों ही आज भी बौद्धिक मंडली में अच्छा दखल रखते हैं. यहाँ दीगर बात यह है कि संसदीय प्रणाली में किसी भी तरह के परिवर्तन का मतलब होगा देश की आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था में बदलाव. यह आसान काम नहीं है. लेकिन बदलाव की इस बहस के चल पड़ने के पीछे कई ठोस वजहें हैं.
हाल के वर्षों में संसदीय व्यवस्था ने लोगों का भरोसा खोया है. लोगों के बीच में जन प्रतिनिधियों प्रति अविश्वास बढ़ा है.
बढ़ते अविश्वास के भी गहरे कारण हैं. देश की सर्वोच्च संस्था यानी संसद में दागी छवि के लोगों की संख्या बेतहासा बढ़ी है. पैसों ने योग्यता की जगह ली है. राजनीति में बहसें वोटरों की ज़िन्दगी को बेहतर करने के प्रबंधों पर नहीं बल्कि "वोटर प्रबंधन " पर होने लगी हैं.
इस देश में आज बहसें भी बहकी बहकी होती हैं. यहां यह बहस नहीं होती कि देश ने गरीबी को कितना पाटा. बहस इस बात पर होती है कि देश में अब भी कितने गरीब बचे हैं. देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र से भेजा गया 1 रुपया असल में जिसके लिए होता है उस तक 15 पैसा ही पहुँच पाता है. आज भी देश में उसी पार्टी की सरकार है लेकिन आज बहस होती है कि कौन सा घोटाला अब तक के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला रहा. एक घोटाला दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहा है, अपने आकार और प्रकार की विशिष्टता के लिए.
भारत के संविधान की आत्मा इसकी धर्मनिरपेक्ष छवि है. लेकिन आज भी बहस इस बात पर होती है कि समुदाय विशेष के अधिकारों की रक्षा कैसे हो. सरकार को ऐसा कानून बनाना पड़ता है जिसके मूल में ये माना जाता है कि एक समूह हिंसक है अतः उसे शक की निगाह से देखा जाना चाहिए.
वर्तमान में विकास का स्वरूप भी अटपटा है. विकास ऐसा है जो विनाश भी अपनी बराबरी में रखता है. यह समावेशी विकास नहीं है चिंदी चिंदी विकास है.
विकास की ज़रूरत का अहसास होने के बावजूद भी लोग ऐसे विकास से खुश नहीं हैं. यह विकास लोगों को प्रतिरोध के मंचों पर खड़ा कर रहा है. लोग बागी हो रहे हैं. असमानता गहराती जा रही है.
हर भारतीय की कल्पना इससे बेहतर भारत की है. यह महज़ कल्पना नहीं है यह भारतीयों की अपेक्षा है, उम्मीद है.
यही अपेक्षा भारत के नागरिकों को सरकार के विरुद्ध खड़ा करती है. जब सरकार नहीं दे पाती तो लोग दूसरे रास्ते तलाश करते हैं. अन्ना हजारे के आन्दोलन के साथ लाखों लोगों के कूद जाने के पीछे भी यह एक बड़ा कारण है.
ऐसे में हमारे जनप्रतिनिधियों के पास मौका होता है कि वो लोगों की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप काम करें. लेकिन हमारे जनप्रतिनिधियों के बीच ऐसा कोई उत्साह नहीं दिखता.
आखिर नेता-मंडली लोगों के बीच अलोकप्रिय हो रही राजनीति पर मंथन क्यों नहीं करती.
लोकतंत्र की मजबूती का आकलन वहां के नागरिकों को मिले अधिकारों से भी लगाया जाता है. सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार, भोजन का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार आदि वो बुनियादी तत्व हैं जो लोगों की आस्था लोकतंत्र के प्रति बनाये रखते हैं.
हाल ही में ग्यारहवीं की किताब में अंबेडकर पर छपे कार्टून को लेकर भी हमारी संसद ने नागरिकों को निराश ही किया. कार्टून के बहाने लोकतंत्र को कार्टून बनाया गया. सरकार वोट बैंक के जाल में फंसी दिखी.
ऐसे में हमारी व्यवस्था घुटने टेकने वाली नहीं हो सकती.
कुलदीप नैय्यर और खुशवंत सिंह इसी और इशारा करते हुए कहते हैं कि गठबंधन आज की हकीकत बन चुकी है. इसीलिये हर बुरी हालत के लिए गठबंधन बहाना नहीं बनाया जा सकता.
गठबंधन की राजनीति से जल्द छुटकारा नहीं मिलता देख ही राष्ट्रपति पद्धति को बेहतर माना जाने लगा है. निर्णय लेने की तीव्रता के सम्बन्ध में फ़्रांस और इंग्लैंड से प्रेरित कही गयी यह बातें आज प्रासंगिक होने लगी हैं.
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