Saturday, June 24, 2023

भारत में मीडिया की दुर्गति

 

भारत में मीडिया की दुर्गति

- शैलेन्द्र चौहान

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का काम यह होना चाहिए था कि वह लोगों को जागरूक करे किन्तु टीआरपी के चलते समाचार चैनल इन दिनों किसी भी खबर को सनसनी बनाकर पेश करने से नहीं चूक रहे। यह चिंताजनक स्थिति है। अगर हम भारतीय समाचार पत्रों तथा इलेक्ट्रानिक चैनलों पर प्रसारित होने वाले समाचारों को देखे तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस देश में अब सूचना माध्यमों के लिए एकमात्र प्रमुख चिंता है राजनीतिक उठापटक और चंद राजनीतिज्ञों की चमक दमक एवं शौहरत का प्रचार प्रसार। बाकी सब बेकार है कोरोना के अलावा। महामारी है तो समाचार देना अनिवार्य है। या फिर निकट अतीत में सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या। चुनावी मौसम में तो चैनलों की बल्ले बल्ले होती है। यह सब नहीं तो क्रिकेट। महंगाई, बेरोजगारी, कानून व्यवस्था अब समाचार नहीं बचे हैं या हाशिए के समाचार हैं।

सचाई यह भी है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समक्ष इन दिनों जिस तरह साख का संकट उत्पन्न हुआ है उसने पत्रकारिता के इस माध्यम को अंदर तक खोखला कर दिया है। समाचार चैनलों को यह बात जितनी जल्दी हो समझ लेना चाहिए वरना यदि देर हो गई तो यह उनके अस्तित्व का संकट भी हो सकता है। सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत, प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता और वेब जर्नलिज्म की मजबूती ने इस माध्यम की प्रासंगिकता और भरोसे को तोडा है। सच को सामने लाना मीडिया का दायित्व होता है पर उस सच की कीमत कौन चुकाए? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तुलना में प्रिंट मीडिया ज्यादा सशक्त है। प्रिंट मीडिया सावधानीपूर्वक अध्ययन और समझने के बाद खबर देता है, जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पल-पल के समाचार तत्काल देता है। समाज में जागरुकता लाने में अखबारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

यह भूमिका किसी एक देश अथवा क्षेत्र तक सीमित नहीं है, विश्व के तमाम प्रगतिशील विचारों वाले देशों में समाचार पत्रों की महती भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। मीडिया में और विशेष तौर पर प्रिंट मीडिया में जनमत बनाने की अद्भुत शक्ति होती है। नीति निर्धारण में जनता की राय जानने में और नीति निर्धारकों तक जनता की बात पहुंचाने में समाचार पत्र एक सेतु की तरह काम करते हैं। हम स्वयं को लोकतंत्र कहते हैं तो हमें यह भी जान लेना चाहिए कि कोई भी राष्ट्र तब तक पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक नहीं हो सकता जब तक उसके नागरिकों को अपने अधिकारों को जीवन में इस्तेमाल करने का संपूर्ण मौका न मिले। मीडिया समाज की आवाज शासन तक पहुंचाने में उसका प्रतिनिधि बनता है। लेकिन आजकल उलटा ही चलन है। आज प्रधान सेवक और उनकी पार्टी एवं सरकार के अतिरिक्त भारत देश में और कुछ समाचार बचा ही नहीं है। बाकी सेंसेक्स है, आई पी एल है। अर्थात आर्थिक समाचार और व्यवसाय। अब सवाल यह उठता है कि वाकई मीडिया अथवा प्रेस जनता की आवाज हैं? आखिर वे जनता किसे मानते हैं?

 उनके लिए शोषितों की आवाज उठाना ज्यादा महत्वपूर्ण है अथवा युद्ध और हथियारों की रिर्पोटिंग करना। आम आदमी के मुद्दे बड़े हैं अथवा किसी सेलिब्रिटी की निजी जिंदगी ? आज की पत्रकारिता इस दौर से गुजर रही है जब उसकी प्रतिबद्धता पर प्रश्रचिन्ह लग रहे हैं। समय के साथ मीडिया के स्वरूप और मिशन में काफी परिवर्तन हुआ है। अब गंभीर मुद्दों के लिए मीडिया में जगह घटी है। अखबार का मुखपृष्ठ अमूमन राजनेताओं की बयानबाजी, उनकी प्रशस्ति, क्रिकेट मैचों अथवा बाजार के उतार-चढ़ाव को ही मुख्य रूप से स्थान देता है।

गंभीर से गंभीर मुद्दे अंदर के पृष्ठों पर लिए जाते हैं तथा कई बार तो सिरे से गायब रहते हैं। समाचारों के रूप में कई समस्याएं जगह तो पा लेती हैं परंतु उन पर गंभीर विमर्श के लिए समय की या पृष्ठों की कमी हो जाती है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत में किस प्रकार से सामाजिक ढांचे में बदलाव हो रहा है इसके बारे में भी भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों में सामान्यत: बहुत कुछ पढ़ने को नहीं मिलता। टी वी चैनलों का तो हाल यह है कि दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, लखनऊ, बंगलोर, गोआ, पटना और श्रीनगर जैसे राजनीतिक गर्मी से भरे केन्द्रों के अलावा बाकी के बारे में उनकी चिन्ताएं तथा संवेदनाएं लगभग मर चुकी हैं। यहां के अखबारों में ज्यादातर खबरें राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों से जुड़ी हैं। एक दो पेज खेल के फिर अपराध। बचे हुए समय में फिल्मी मनोरंजन ठुसा होता है। तो यह है भारत देश की वह तस्वीर जो मीडिया सृजित कर रहा है। और बाकी जो कुछ भी है वह इतना गौण, नगण्य तथा प्रकाशन और प्रसारण के अयोग्य है कि जिसके बारे में डिजिटल मीडिया का कुछ न बोलना और प्रिंट मीडिया का न छापना ही इस देश के बौद्धिक संपादक, पत्रकार और लेखक सर्वथा उचित मानते हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि और पर्यावरण को बहुत कम स्थान मिलता है। अब किसानों की आत्महत्याएं खबर रह ही नहीं गई हैं। उनका आंदोलन भी अब खबरों के बाहर है।  

ग्रामीण समस्याओं और सामाजिक कुरीतियों से त्रस्त भारतीय समाज के बारे में, गरीबी और स्वास्थ्य की विसंगतियों और शिक्षा के एक साधारण नागरिक की पहुँच से दूर होने और बेरोजगारों की फौज दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने जैसे मुद्दों की कोई परवाह समाचारपत्रों में देखने को नहीं मिलती। यह मैंने स्वयं महसूस किया है कि इन मुद्दों पर लिखने वाले लेखकों पर कतई कोई ध्यान नहीं दिया जाता। उनका लेखन पूर्वाग्रही सम्पादकों द्वारा अलक्ष्य किया जाता है क्योंकि वह सत्ता का प्रतिपक्ष होता है। पिछले कुछ वर्षों में हम देख रहे हैं कि मानवाधिकारों को लेकर मीडिया की भूमिका लगभग तटस्थ है। कश्मीर और शाहीनबाग छोड़भी दें तो विगत में हम इरोम शर्मिला और सलवा जुडूम के उदाहरण देख सकते हैं। ये दोनों प्रकरण मानवाधिकारों के हनन के बड़े उदाहरण है लेकिन मीडिया में इन प्रकरणों पर गंभीर विमर्श अत्यंत कम हुआ है। सरकार से असहमति जताने पर और नीतियों का विरोध करने पर गैर जमानती धाराएं लगाकर जेलों में ठूंस दिया जाता है। मीडिया सरकार के समर्थन में आ जाता है।

महिलाओं और दलितों पर अत्याचारों की तो लंबी श्रंखला है हाल में उप्र, मप्र, कर्नाटक में कई लोमहर्षक कांड हुए हैं।एकाध पर हो-हल्‍ला हुआ फिर सब जैसा था वही है।राजनैतिक स्वतंत्रता के हनन के मुद्दे पर मीडिया अक्सर चुप्पी साध लेता है। मीडिया की तटस्थता स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है। लोकतंत्र में राजद्रोह की कोई अवधारणा नहीं है और न होनी चाहिए। अपनी बात कहने का, अपना पक्ष रखने का अधिकार हर व्यक्ति के पास है, चाहे वह अपराधी ही क्यों ना हो। राजसत्ता का अहंकार व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को यदि राजद्रोह मानने लगे तो लोकतंत्र का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा ।

ऐसा लगता है कि जहां सत्ता को प्रभावित करने वाली गोटियां और शतरंज की बिसात नहीं होती वे क्षेत्र भारत वर्ष की तथाकथित मुख्यधारा के समाचार माध्यमों के लिए संदर्भहीन हो जाते हैं। शायद अब यहां केवल राजनीति और कमीशनखोरी के कारखाने भर शेष हैं। व्यक्तिगत लाभ और अकूत धन कमाने वाली राजनीति की दुकानें हैं, भ्रष्ट राजनीति के विद्यालय हैं, राजनीतिक अपराधियों के माफिया अड्डे हैं। जिनकी अधिकांश मीडिया और मीडियाकर्मियों से सांठगांठ है। तभी तो सम्पादकों और एंकरों के नखरे ऐसे होते हैं जैसे वे ही आम जनता के तारनहार हैं। वे इसी घमंड से चूर होते हैं। विडम्बना तो यह है कि मीडिया के जो लोग यह कहते हैं कि वे राजनीति से दूर हैं तथा जो राजनीति के संदर्भ में दिल खोलकर आलोचनात्मक टिप्पिणयां करते हैं, वे स्वयं राजनीति के दलदल में गले तक धंसे दिखते हैं। इस बात के तमाम उदारहण हमारे सामने है।

संपर्क: 34/242, सेक्‍टर-3, प्रतापनगर, जयपुर-302033
मो.7838897877

Kamal Taori: गम्छा लाटकाने वाला IAS अफ़सर, जिसने 29 साल तक लड़ी सम्मान की लड़ाई और जीत गया

एक आईएएस ऑफिसर अपनी ज़िंदगी में इतना कुछ झेल चुका होता है कि पद मिलने के बाद वो अपनी बातचीत से लेकर लोगों तक से मिलने का दायरा बहुत कम कर लेता है. यही वजह है कि बड़ी पोस्ट पर बैठे अधिकारी ज़रूरत से ज़्यादा बोलने के आदी नहीं होते

हमारे देश में ये पुराना चलन रहा है कि जब भी कोई अच्छे कपड़े पहनता है, तो लोग तारीफ में यही कहते हैं 'बाबू लग रहे हो.' बाबू मतलब अधिकारी. ऐसे में समझ जाइए कि इनके कपड़े पहनने और उठने-बैठने का क्या ढंग होता होगा. खास बात ये है कि ये आदतें सिर्फ़ नौकरी तक नहीं रहतीं, बल्कि रिटायर होने के बाद भी इन अधिकारियों का रहन-सहन और आदतें ऐसी ही बनी रहती हैं. ऐसे में अगर कोई शख्स आपको खादी का कुर्ता, लुंगी और कंधे पर गम्छा रखे हुए मिले और कहे कि वो आईएएस ऑफिसर रह चुका है तो क्या आप मानेंगे? अगर वो अपना नाम कमल टावरी बताए तो आपको मान लेना चाहिए कि वाकई में ये साधारण सा दिखने वाला आदमी लंबे समय तक आईएएस ऑफिसर रहा था.



कौन हैं कमल टावरी! Kamal Taori IAS Biography

कोई डॉक्टर होता है, कोई इंजीनियर होता है, कोई पुलिस ऑफिसर होता है, तो कोई दुकानदार. इसी तरह हर इंसान की एक पहचान होती है, लेकिन बात जब कमल टावरी की आती है तो उनके लिए उपाधियां कम पड़ने लगती हैं. टावरी साहब एक फौजी भी रहे हैं, आईएएस ऑफिसर के रूप में कलेक्टर भी रहे, कमिश्नर भी रहे, भारत सरकार में सचिव भी रहे, एक लेखक भी हैं, समाज सेवी और मोटिवेटर भी हैं. 

एक इंसान खुद में इतनी सारी उपलब्धियां समेटे होने के बावजूद भी इतनी सादगी से रहता है कि आप उन्हें देख कर विश्वास नहीं कर पाएंगे कि वे 2006 तक कई जिलों के कलेक्टर और कई जगहों के कमिश्नर रहने के अलावा राज्य और केन्द्र सरकार में कई महत्वपूर्ण विभागों के सचिव रह चुके हैं.

कमल टावरी की यही सादगी और खुल कर अपनी बात कहने की आदत उन्हें अन्य अधिकारियों से अलग बनाती है. सेवानिवृत्त होने के बाद से वह युवाओं को स्वरोज़गार के प्रति प्रेरित करते हैं तथा लोगों को तनाव मुक्त जीवन जीने का हुनर सिखाते हैं.

कमल टावरी का जन्म 1 अगस्त 1946 को महाराष्ट्र के वर्धा में हुआ था. बचपन से ही इनमें कुछ अलग करने का जज़्बा था और इसी जज़्बे ने इन्हें हमेशा असंभव को संभव में बदलने की हिम्मत ही. कमल टावरी ने सिविल सर्विसेज में आने से पहले 6 साल तक सेना में एक अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं दीं. 

वह इंडियन आर्मी का हिस्सा रहने के दौरान कर्नल के पद पर रहे तथा 1968 में वह आईएएस बने. टावरी जी 22 वर्षों तक ग्रामीण विकास, ग्रामोद्योग, पंचायती राज, खादी, उच्चस्तरीय लोक प्रशिक्षण जैसे विभाग में लोगों की सेवा करते रहे. कमल टावरी के लिए कहा जाता है कि अगर सरकार इन्हें सज़ा के रूप में किसी पिछड़े हुए विभाग में भी भेजती थी तो ये अपनी कार्यशैली से उस विभाग को भी महत्वपूर्ण बना देते थे. टावरी साहब केन्द्रीय गृह मंत्रालय एवं नीति आयोग सहित विभिन्न राष्ट्रीय संस्थाओं में उच्च पदों पर स्थापित होने के साथ साथ उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िला के डीएमम तथा फ़ैज़ाबाद जो अब अयोध्या के नाम से जाना जाता है के कमिश्नर भी रहे. 

कमल टावरी ने अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए इतना अनुभव एकत्रित कर लिया कि उन्होंने इसके आधार पर 40 पुस्तकें भी प्रकाशित करवा लीं. बात इनकी शैक्षणिक योग्यता की करें तो इन्होंने एलएलबी होने के साथ साथ इक्नॉमीक्स में डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की है.

सादा जीवन उच्च विचार

एक आईएएस होने के दौरान विभिन्न उच्च पदों की शोभा बढ़ाने वाले टावरी साहब आपको हमेशा सामान्य लिबास में दिखेंगे. किसी गांव देहात के व्यक्ति की तरह लूंगी कुर्ता और गम्छा लिए कमल टावरी किसी से भी बोलते बतियाते मिल जाएंगे. हंसमुख स्वभाव, सबको प्रोत्साहित करते रहने की आदत और अपने अनुभवों से सजे हज़ारों किस्से हैं इनके पास. ऐसा नहीं है कि ये स्वभाव इन्होंने सेवानिवृत्त होने के बाद अपनाया है, बल्कि अपनी पोस्टिंग के समय से ही ये ऐसे ही हैं.

इनके खादी पहनने का किस्सा भी बहुत रोचक है. एक दिन अचानक ही संकल्प ले लिया कि आज से केवल खादी ही पहनेंगे और तब से खादी इनके तन से ना उतरी. भाग्योदय फाउंडेशन के राम महेश मिश्रा बताते हैं कि ये उनके सामने की घटना है. तब टावरी साहब उत्तर प्रदेश के ग्राम्य विकास सचिव थे. 

लखनऊ के जवाहर भवन में ग्राम्य विकास आयुक्त के सभागार में कमल टावरी ने यह संकल्प ले लिया कि वह अब खादी के कपड़े ही पहनेंगे. तब से ये खादी उनके तन की शोभा बढ़ा रही है. टावरी साहब की दूसरी सबसे बड़ी ताकत रही उनके अंदर की साफगोई और ईमानदारी. वह सच के साथ हमेशा खड़े रहे, फिर चाहे जो भी अंजाम हो. उनके तबादले ऐसी ऐसी जगह हुए जहां जाने के नाम से अच्छे-अच्छे अधिकारियों की रूह कांप जाती है. 

किन्तु, कमल टावरी को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था कि उन्हें कहां भेजा जा रहा है. वह बस अपनी ड्यूटी निभाना जानते थे. इनका हिसाब एकदम क्लियर था. अपनी नौकरी में कुछ साल बिताने के बाद इन्हें समझ आ गया था कि भले ही वह एक अधिकारी की कुर्सी पर बैठे हों, लेकिन कुछ भी तय करने का हक़ उनके पास नहीं है. अगर वह इसके खिलाफ जाते हैं तो अंजाम भुगतना होगा. टावरी इससे डरने वाले नहीं थे. 

इन्होंने भी तय कर लिया कि कुछ भी हो जाए ये किसी के बताए रास्ते पर नहीं चलेंगे बल्कि अपना रास्ता और अपनी मंज़िल दोनों खुद ही तय करेंगे.  आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने अपने एक लेख में टावरी साहब से जुड़ा एक ऐसा ही किस्सा लिखते हुए इनकी निर्भीकता का उदाहरण दिया है. यह 1985 की बात है, तब टावरी साहब फैज़ाबाद के कमिश्नर थे. उन्हें राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद से जुड़े एक मामले में कुछ आदेश मिला था, जो उन्हें उचित नही लगा. 

परिणाम स्वरूप उन्होंने बात नहीं मानी. इसकी सज़ा के तौर पर उन्हें रातों रात पद से हटा दिया गया. टावरी साहब के तत्कालीन मुख्य सचिव ने तत्कालीन मुख्यमंत्री से कहा कि टावरी अच्छे अधिकारी हैं. इस पर आगे से जवाब आया 'तभी तो उन्हें एक बहुत अच्छे पद पर भेज रहे हैं.' वो अच्छा पद था उत्तर प्रदेश खादी बोर्ड में सचिव का पद. इसे अधिकारी डंपिंग ग्राउंड कहते थे जहां आम तौर पर सज़ा के रूप में अधिकारियों के तबादले होते थे. टावरी ने उसी दिन यह निर्णय लिया कि वे अब किसी के पास पोस्टिंग की बात लेकर नहीं जाएंगे. इसके बाद उन्होंने खुद को ऐसी पोस्टों के लिए तैयार करना शुरू किया जो जिन्हें लोग डंपिंग ग्राउंड कहते हैं.  

29 साल तक लड़ी सम्मान की लड़ाई

अधिकारी जो जिले भर का मालिक है, उसके हाथ में न्याय व्यवस्था से लेकर प्रशासन तक की कमान है. वो अपने साथ हुई अभद्रता पर कैसे शांत रह सकता है? कमल टावरी के साथ भी ऐसा ही हुआ, लेकिन उन्होंने अपनी पावर दिखाने की जगह कानून का सहारा लेना बेहतर समझा. वह इस मामले में कोर्ट तक गए और सालों तक कानूनी लड़ाई लड़ी. यह मामला 1983 का है. कमल टावरी और आईपीएस ऑफिसर एसएम नसीम एक संदिग्ध बस का पीछा कर रहे थे.

ये यूपी स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कोर्पोरेशन की बस थी. 15 किमी पीछा करने के बाद दोनों अधिकारियों ने आजमगढ़ के अतरौलिया में बस को रोक लिया. इसी दौरान बस के ड्राइवर और कंडक्टर ने दोनों अधिकारियों पर बुरी तरह हमला कर दिया. टावरी ने इसकी पुलिस में शिकायत कर दी. 

मामला कोर्ट में पहुंच गया मगर कुछ सालों बाद इस केस की फाइल गुम हो गई. तीन दशकों बाद जब टावरी अपना केस इलाहाबाद कोर्ट में लेकर पहुंचे तब वहां से आदेश दिया गया कि इस केस पर लगातार छानबीन हो. अंत में 29 साल बाद 26 मार्च 2012 को इस केस का फैसला आया और दोनों आरोपियों को 3-3 साल की कैद हुई. तो ऐसे हैं टावरी साहब जो हमेशा नियम कानून के हिसाब से चलते हैं.

अब सिखाते हैं युवाओं को रोज़गार का मूल मंत्र

इसी साल टावरी साहब का एक इंटरव्यू इंटरनेट कर बहुत वायरल हुआ था. इसमें वह बताते हैं कि देश में फैली बेरोजगारी को कैसे दूर किया जा सकता था. अपने रिटायरमेंट के बाद टावरी साहब अधिकतर समय गांवों से लोगों के पलायन को रोकने, गांवों के विकास और युवाओं को रोजगार के तरीके सीखाने में बिताते हैं. 

कमल टावरी का मानना है कि युवा शिक्षा के साथ साथ अपने अंदर के गुण को भी पहचाने. वो ये समझे कि वो किस तरह अपनी बुद्धि और समझ से रोजगार पैदा कर सकता है. श्री टावरी कहते हैं कि यहां आपके आस पास जितनी भी चीज़ें हैं उन सब में रोजगार है. ज़रूरत है तो बस अपने अंदर के हुनर को निखारने की.

अपने जीवन के 40 वर्ष से ज़्यादा उच्च पदों पर बैठने वाला शख्स आज गांव की मिट्टी से जा लिपटा है. गांव से लेकर युवाओं तक के लिए चिंतित है, उन्हें हर तरह से प्रोत्साहित कर रहा है. इस शख्स में रत्ती भर भी अपनी उपलब्धियों का घमंड नहीं है. सही मायने में हर अधिकारी को ऐसा ही होना चाहिए, जो अपने अनुभव से देश के भविष्य को सही रास्ता दिखाना जानता हो.

लोकतंत्र के कार्टूनीकरण का दौर

भारत एक संसदीय लोकतंत्र वाला देश है. भारत का लोकतंत्र बहुत पुराना नहीं है. भारतीय लोकतंत्र महज 62 साल का बालक हैअनेक देशों में लम्बे समय से चल रहे लोकतंत्र के अनुभव भी बताते हैं कि लोकतंत्र को परिपक्व होने में समय लगता है. 

लोकतंत्र के मामले में भारत की हर मोर्चे पर प्रशंसा होती है. इन सब खूबियों के बीच ध्यान देने वाली बात भारतीय लोकतंत्र के साथ घटित हुई घटनायें हैं. ये ऐसी घटनायें हैं जो लोकतंत्र की सकारात्मक तस्वीर पेश नहीं करती.

23 मई को भारत के बड़े अखबार "दैनिक जागरण" में जाने माने पत्रकार "कुलदीप नैय्यर" ने लिखा भारत में संसदीय पद्धति की जगह राष्ट्रपति पद्धति का शासन अपनाने पर विचार करना चाहिए. 26 मई को दैनिक "हिदुस्तान" में इसी तरफ इशारा करता हुआ "खुशवंत सिंह" का लेख छपा.


दोनों लोग अपने-अपने समय के विचारक पत्रकार रहे हैं. दोनों ही आज भी बौद्धिक मंडली में अच्छा दखल रखते हैं. यहाँ दीगर बात यह है कि संसदीय प्रणाली में किसी भी तरह के परिवर्तन का मतलब होगा देश की आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था में बदलाव. यह आसान काम नहीं है. लेकिन बदलाव की इस बहस के चल पड़ने के पीछे कई ठोस वजहें हैं. 

दुखद बात यह है कि ६० साल से भी अधिक का लोकतंत्र अपने नागरिकों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया. देश उतना
 विकास नहीं कर पाया जितनी इसमें कुव्वत थीसंभावनाएं थी.
हाल के वर्षों में संसदीय व्यवस्था ने लोगों का भरोसा खोया है. लोगों के बीच में जन प्रतिनिधियों प्रति अविश्वास बढ़ा है.


बढ़ते अविश्वास के भी गहरे कारण हैं. देश की सर्वोच्च संस्था यानी संसद में दागी छवि के लोगों की संख्या बेतहासा बढ़ी है. पैसों ने योग्यता की जगह ली है. राजनीति में बहसें वोटरों की ज़िन्दगी को बेहतर करने के प्रबंधों पर नहीं बल्कि "वोटर प्रबंधन " पर होने लगी हैं.

इस देश में आज बहसें भी बहकी बहकी होती हैं. यहां यह बहस नहीं होती कि देश ने गरीबी को कितना पाटा. बहस इस बात पर होती है कि देश में अब भी कितने गरीब बचे हैं. देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र से भेजा गया रुपया असल में जिसके लिए होता है उस तक 15 पैसा ही पहुँच पाता है. आज भी देश में उसी पार्टी की सरकार है लेकिन आज बहस होती है कि कौन सा घोटाला अब तक के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला रहा. एक घोटाला दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहा हैअपने आकार और प्रकार की विशिष्टता के लिए.

भारत के संविधान की आत्मा इसकी धर्मनिरपेक्ष छवि है. लेकिन आज भी बहस इस बात पर होती है कि समुदाय विशेष के अधिकारों की रक्षा कैसे हो. सरकार को ऐसा कानून बनाना पड़ता है जिसके मूल में ये माना जाता है कि एक समूह हिंसक है अतः उसे शक की निगाह से देखा जाना चाहिए.

वर्तमान में विकास का स्वरूप भी अटपटा है. विकास ऐसा है जो विनाश भी अपनी बराबरी में रखता है. यह समावेशी विकास नहीं है चिंदी चिंदी विकास है.

विकास की ज़रूरत का अहसास होने के बावजूद भी लोग ऐसे विकास से खुश नहीं हैं. यह विकास लोगों को प्रतिरोध के मंचों पर खड़ा कर रहा है. लोग बागी हो रहे हैं. असमानता गहराती जा रही है.

हर भारतीय की कल्पना इससे बेहतर भारत की है. यह महज़ कल्पना नहीं है यह भारतीयों की अपेक्षा हैउम्मीद है.
यही अपेक्षा भारत के नागरिकों को सरकार के विरुद्ध खड़ा करती है. जब सरकार नहीं दे पाती तो लोग दूसरे रास्ते तलाश करते हैं. अन्ना हजारे के आन्दोलन के साथ लाखों लोगों के कूद जाने के पीछे भी यह एक बड़ा कारण है.

ऐसे में हमारे जनप्रतिनिधियों के पास मौका होता है कि वो लोगों की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप काम करें. लेकिन हमारे जनप्रतिनिधियों के बीच ऐसा कोई उत्साह नहीं दिखता. 
आखिर नेता-मंडली लोगों के बीच अलोकप्रिय हो रही राजनीति पर मंथन क्यों नहीं करती.

लोकतंत्र की मजबूती का आकलन वहां के नागरिकों को मिले अधिकारों से भी लगाया जाता है. सम्मानपूर्वक जीने का अधिकारभोजन का अधिकारअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार आदि वो बुनियादी  तत्व हैं जो लोगों की आस्था लोकतंत्र के प्रति बनाये रखते हैं.

बजाय इसके कि लोगों को अधिकार संपन्न बनाया जाय नेता बिरादरी सहनशीलता
 तक खोती जा रही है. बुनियादी हकों को लेकर लोग एक तरफ आन्दोलन चला रहे हैं तो दूसरी तरफ इनके खिलाफ हमारे जन प्रतिनिधि ही खड़े हो जा रहे हैं.

हाल ही में ग्यारहवीं की किताब में अंबेडकर पर छपे कार्टून को लेकर भी हमारी संसद ने नागरिकों को निराश ही किया. कार्टून के बहाने लोकतंत्र को कार्टून बनाया गया. सरकार वोट बैंक के जाल में फंसी दिखी.

ऐसे में हमारी व्यवस्था घुटने टेकने वाली नहीं हो सकती.
कुलदीप नैय्यर और खुशवंत सिंह इसी और इशारा करते हुए कहते हैं कि गठबंधन आज की हकीकत बन चुकी है. इसीलिये हर बुरी हालत के लिए गठबंधन बहाना नहीं बनाया जा सकता.

गठबंधन की राजनीति से जल्द छुटकारा नहीं मिलता देख ही राष्ट्रपति पद्धति को बेहतर माना जाने लगा है. निर्णय लेने की तीव्रता के सम्बन्ध में फ़्रांस और इंग्लैंड से प्रेरित कही गयी यह बातें आज प्रासंगिक होने लगी हैं.

कविता की आधुनिकता सबसे पहले उसकी भाषा की आधुनिकता होती है - अशोक वाजपेयी

 आधुनिकता की भाषा का भाषा की सर्जनात्मक प्रतिभा से स्वतंत्र कोई मूल्य नहीं हो सकता

अरबी काव्य-सिद्धान्त

आधुनिक अरबी कविता और उसके काव्य-शास्त्र के बारे में हमारी जानकारी काफ़ी कम और सतही रही है. उसके एक बड़े कवि आदोनिस ने पेरिस के अत्यन्त प्रतिष्ठित संस्थान कालेज दि फ्रांस में 1984 में अरबी काव्य-शास्त्र पर व्याख्यान दिये थे. उनका अंग्रेज़ी में अनुवाद पुस्तकाकार यूनीवर्सिटी आव् टैक्सस आस्टिन से 1990 में ‘एन इण्ट्रोडक्शन टु अरब पोएटिक्स’ नाम से प्रकाशित हुआ था. इसे मैंने पेरिस में 1992 में खरीदा था. इन दिनों उसे फिर पढ़ना शुरू किया.

आदोनिस ने कविता में विचार की स्थिति पर विचार करते हुए चार स्तर बताये हैं. रचना में काव्य-बिम्ब किसी मनुष्य में जो अस्पष्ट और अनेकार्थी है उसे उजागर करता है. पाठक जो महसूस करता या सोचता है वह उसे अनावृत करता है और उसे ऐसे साधन सुलभ कराता है कि वह अपनी आन्तरिक दुनिया को बेहतर जान और समझ पाये. यह काव्यबिम्ब बाहरी दुनिया के बुनियादी नकूश ज़ाहिर करता है और इस तरह जो दबाया गया, अनजाना या उपेक्षित किया गया हो उसे व्यक्त करता है. इन मौजूद सचाइयों को दिखाने के अपने तरीके से रचना उन सवालों को जन्म देती है जो दूसरी सचाइयों की तरफ़ इशारा करते हैं और इस तरह ज्ञान और अनुभव में विस्तार होता है.

ये उद्घाटन और सवाल, जब रचना पढ़ी जाती है, निजी भावों के दायरे से बढ़कर अधिक समावेशी हो जाते हैं, कविता के उन पहलुओं का, जिनका सिर्फ़ कलात्मक औचित्य था, कायाकल्प हो जाता है और वे ज़िन्दगी और विचार के व्यापक सन्दर्भ में शामिल हो जाते हैं. जो निजी और विशिष्ट था वह सामान्य और सार्वभौम हो जाता है. इन उद्घाटनों में कुछ इतने उदात्त होते हैं कि वे अज्ञात की कुंजी बन जाते हैं या कि नई अप्रत्याशित दृष्टि का आधार. वे सिर्फ़ मौजूदा सचाइयों को समझने में मददगार नहीं होते बल्कि भविष्य देख सकने के लिए प्रस्थान बिन्दु भी बन जाते हैं. चूंकि वे अस्तित्व और मानवीय आत्मा पर रोशनी डालते हैं, वे विचार और कर्म के लिए सम्भावनाएं भी प्रस्तुत करते हैं.

भाषा में कविता और विचार ऐसे संगुम्फित हो जाते हैं कि चेतना की एकता उभरती है और कविता से विचार ऐसे फूटता है जैसे कि गुलाब से सुगन्ध. यह सम्‍भव हो पाता है कविता के रूपकात्मक ढांचे से. अरबी भाषाविद् इब्न जिन्नी ने कहा था कि कविता का अधिकांश रूपकात्मक होता है, यथातथ्य नहीं. रूपक भाषा के मूल मन्तव्य से विचलन होता है. यथातथ्यता से रूपक की ओर जाना अर्थ के विस्तार, बलाघात और तुलना के कारण होता है. आदोनिस कहते हैं कि रूपक अरबी भाषा में निरा अभिव्यक्ति का एक प्रकार नहीं है, वह भाषा की संरचना में ही है. सचाई को अतिक्रमित करने की आध्यात्मिक ज़रूरत होती है और वह उस संवेदना से उपजता है जो ठोस से ऊब जाती है और उसके पार देखना चाहती है – एक आधिभौतिक संवेदना. रूपक अतिक्रमण करता है. रूपक का स्वभाव ही है कि वह मौजूदा सचाई को ख़ारिज कर विकल्प खोजता है. रूपक कोई अन्तिम या निर्णायक उत्तर नहीं होता क्योंकि वह स्वयं भाषिक अन्तर्विरोधों की रणभूमि होता है. वह उस तरह की निश्चयात्मकता से दूर होता है जिसकी अकसर तलाश की जाती है.

आदोनिस कवि के रूप में कविता को एक ऐसा माध्यम मानते हैं जो मानवता को उपलम्य है, अपने ऊपर आधुनिक तकनालजी और उपकरणात्मक तर्कबुद्धि के शिकंजे को ढीला करने के लिए. उनका ख़याल है कि आधुनिक को प्राचीन के विरोध के रूप में देखना अब बन्द हो गया है: आधुनिक समय में भी होता है और समय के बाहर भी. समय का, क्योंकि उसकी जड़ें इतिहास की गतिशीलता, मानवता की सर्जनात्मक प्रतिभा में होती हैं और मनुष्य के अपने को घेरी सीमाओं के पार जाने की कोशिश में. समय से बाहर, क्योंकि वह ऐसी दृष्टि है जो सभी समयों को समाये होती है. इसका आशय यह भी है कि आधुनिकता सिर्फ़ वह प्रक्रिया नहीं है जो भाषा को प्रभावित करती है, वह भाषा के अस्तित्व का पर्याय हो जाती है. किसी भाषा की कविता में आधुनिकता पहले उसकी भाषा की आधुनिकता होती है. आधुनिकता की भाषा का भाषा की सर्जनात्मक प्रतिभा से स्वतंत्र कोई मूल्य नहीं हो सकता. वे कहते हैं कि ‘एक अरब कवि को सचमुच आधुनिक होने के लिए ज़रूरी है कि उसकी रचना ऐसी दीपशिखा की तरह प्रज्वलित हो जो प्राचीनों की आग से उठी हो पर साथ ही साथ पूरी तरह से नयी हो.’

साहीविमर्श

विजय देव नारायण साही का एक निबन्ध संग्रह है ‘साहित्य क्यों’ जो 1988 में उनकी पत्नी कंचन लता साही ने संपादित और प्रकाशित किया था. इस बीच उसे एक बार फिर पढ़ गया. साही मेरे निमंत्रण पर दो बार भोपाल आये थे: एक बार ‘हमारा समय’ श्रृंखला में बोलने और दूसरी बार ‘साहित्य और आस्था’ विषय पर अरविन्द सेमिनार में शिरक्त करने. उनके ‘हमारा समय’ व्याख्यान को ग़लती से अरविन्द सेमिनार से कंचनलता जी ने जोड़ दिया.

‘साहित्य क्यों’ निबन्ध में साही कहते हैं: ‘स्वप्नदर्शी मन जब सपने देखते-देखते रूक जाता है और उन सपनों को कहीं साकार होते नहीं पाता तो एक ख़तरनाक पाखण्ड में पड़ता है – वह पाखण्ड यथार्थ के किसी उदाहरण को जल्दी से स्वप्न का साकार रूप मान लेने का, ताकि अपने को स्वप्न की सार्थकता का आश्वासन दे सके, या फिर बहुत कड़वाहट और तेज़ी के साथ उन स्वप्नों पर आक्रमण शुरू करता है. इस आक्रमण की शक़्ल चीख़ती हुई मूल्यहीनता, अर्थहीनता और बड़बड़ाहट की होती है. दोनों ही शक़्लें उस घबराये हुए ज़िद्दी मन की हैं जो स्वप्न और यथार्थ की दुर्लघ्य खाई तो देखता है लेकिन उन आधारभूत मान्यताओं पर प्रश्नचिह्न लगाना नहीं चाहता जिनके कारण इस खाई का निर्माण हुआ है.’

धर्मनिरपेक्षता पर अपने एक निबन्ध का समापन करते हुए साही कहते हैं: ‘… धर्मनिरपेक्षता एक गतिशील प्रक्रिया है. कोई बनी-बनायी या बाहर से उधार ली गयी अवधारणा नहीं है जिसको हम आंख मूंदकर हर जगह लागू कर दें. यह प्रक्रिया अभी भी उन्हीं दो ध्रुवों के बीच चक्कर काटती है. धार्मिक तत्ववाद के सहारे समन्वय नहीं हो सकता और प्रत्यक्षवाद सतह पर तैरता है. हम फिर उन्हीं आरंभिक प्रश्नों को पूछकर बात को फिलहाल ख़त्म करें. क्या सारे धर्म समान रूप से सार्थक हैं? क्या सारे धर्म समान रूप से निरर्थक हैं?’ ‘भारतीयता क्या है’ निबन्ध में साही स्पष्ट करते हैं: ‘विविधता को बीच से सबको जोड़ने वाले नये संस्कारों की खोज और निर्माण, दरिद्रता और कंगाली से संपन्नता की ओर जाना, और साथ-साथ, ग़ैरबराबरी को मिटाकर अधिक से अधिक समता को स्थापित करना. इन बदलावों के लिए सतत संघर्ष ही वास्तविक भारतीयता है क्योंकि वह समाज को घने रिश्तों के साथ जोड़ती है.’

‘हमारा समय’ में साही ने कहा: ‘अगर कहीं चन्द्रयान है तो उसके होने की भी शर्त है कि कहीं बैलगाड़ी रहे…. न्यूयार्क और भूखों मरता बस्तर, छत्तीसगढ़ एक ही बीसवीं शताब्दी के अंग हैं. जो यह कहता है कि वह बीसवीं शताब्दी है और यह बारहवीं शताब्दी, वह मार्क्सवादियों की तरह या साम्राज्यवादियों की तरह झूठ बोलता है. न्यूयार्क और मास्को के होने की शर्त ही यही है कि एक छत्तीसगढ़ हो, एक बस्तर भी हो और बना रहे. जिस दिन बस्तर उठने लगेगा, न्यूयार्क गिरने लगेगा. या तो न्यूयार्क और मास्को अपनी रक्षा के लिए बस्तर पर एटम बम गिरा देगा कि उसे उठने न दिया जाये और फिर इसको बस्तरपन की ओर वापस कर दिया जाये और या अगर बस्तर ऐसा हो गया कि उठ गया सचमुच तो, न्यूयार्क गिर जायेगा. गिरेगा ज़रूर. यह मेरे दिमाग़ में बिलकुल साफ़ दिखता है और केवल भारतीय होने के नाते नहीं. भारतीय होने के नाते तो इसलिए कि भुक्तभोगी हूं इसलिए दिख रहा है. मगर यह समस्या मनुष्य के भविष्य की स्थिति मुझको दिखायी देती है.’

साही इतिहास और परम्परा पर विचार करते हुए कहते हैं: ‘हमें यह मानकर चलना होगा कि विशुद्ध वस्तुपरकता उतनी ही असम्भव है जितनी कि विशुद्ध आत्मपरकता. हम बराबर, उस हाशिये पर बेचैन चक्कर काटते हैं, जहां वस्तु और आत्मा की सीमा-रेखाएं मिटती दीखती हैं. इस स्थिति को वह कितनी ही पीड़ादायिनी क्यों न हो, हमें स्वीकार करना पड़ेगा.’

अब घर बैठे भेज सकेंगे अपील और फीस, RTI ऑनलाइन आवेदनऑनलाइन आवेदन के लिए किया जा रहा वेबपोर्टल का निर्माण

 

रायपुर। मुख्य राज्य सूचना आयुक्त के निर्देशानुसार सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 यानि आरटीआई के अन्तर्गत आवेदन प्राप्त करने के लिए ऑनलाइन आवेदन का निर्माण किया जा रहा है। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अन्तर्गत आवेदन प्राप्त किए जाने हेतु ऑनलाईन वेबपोर्टल के साफ्टवेयर तैयार हो जाने से आवेदक जनसूचना अधिकारी, प्रथम अपीलीय अधिकारी और द्वितीय अपील के आवदेन के साथ अधिनियम के तहत वांछित शुल्क ऑनलाईन जमा किया जा सकेगा।

मुख्य राज्य सूचना आयुक्त एम. के. राउत ने बताया कि सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अन्तर्गत ऑनलाईन आवेदन प्राप्त करने के लिए भारत सरकार के सभी विभाग सहित कुछ राज्यों के द्वारा वेबपोर्टल बनाया गया है। उन्होंने बताया कि ऑनलाइन आवेदन के साफ्टवेयर तैयार हो जाने से आवेदक जनसूचना अधिकारी/प्रथम अपीलीय अधिकारी और द्वितीय अपील के आवदेन के साथ अधिनियम के तहत वांछित शुल्क ऑनलाईन जमा कर सकेगें, इससे समय और अनावश्यक व्यय से बचा जा सकेगा।

कोविड-19 के गाईड लाईन को ध्यान में रखते हुए छत्तीसगढ़ शासन द्वारा राज्य में सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अन्तर्गत ऑनलाईन पोर्टल के माध्यम से आवेदन प्राप्त किए जाने के संबंध में राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केन्द्र (एन आई सी) मंत्रालय को उल्लेखित पोर्टल बनाने के संबंध में निर्देश छत्तीसगढ़ शासन सामान्य प्रशासन विभाग को दिए हैं। राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केन्द्र (एन आई सी) द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अन्तर्गत आवेदन प्राप्त किए जाने हेतु ऑनलाईन वेबपोर्टल का निर्माण किया जा रहा है।

Is Bread Bad for You: Side Effects of Eating Brown & White Bread

Side Effects of Eating Brown & White Bread [Is Bread Bad for You in Hindi] 

कई बीमारियों के साथ देता है कैंसर को बुलावा ।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) के एक अध्ययन में सामने आया है कि ब्रेड से कैंसर का खतरा बढ़ता है । ब्रेड बनाने में पोटैशियम ब्रोमेट और पोटैशियम आयोडेट नामक घातक रसायनों का प्रयोग होता है ।

पोटेशियम ब्रोमेट पेट-दर्द, दस्त, मिचली, उलटी, गुर्दों की खराबी (Kidney Failure), अल्पमूत्रता (oliguria), पेशाब न बनना (Anuria), बहरापन, चक्कर आना, उच्च रक्तचाप, केन्द्रीय तंत्रिका प्रणाली का अवसाद (Depression Of The Central Nervous System), रक्त में प्लेटलेट्स की कमी आदि कई बीमारियों को पैदा करता है । इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (IARC) के अनुसार इससे कैंसर होने की सम्भावना भी बढ़ जाती है ।

इतना ही नहीं, यह रसायन आटे में पाये जानेवाले विटामिन्स, फैटी एसिड्स आदि पोषक तत्वों को घटाकर पौष्टिकता को कम कर देता है । पोटैशियम आयोडेट से शरीर में जरूरत से ज्यादा आयोडीन जा सकता है ।

इन रसायनों का उपयोग कई देशों में निषिद्ध है पर भारत में इनका धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है । ब्रेड के अलावा अन्य बेकरी-उत्पादों में भी इन रसायनों का प्रयोग किया जाता है । सर्वेक्षण के लिए अलग-अलग जगहों से ब्रेड, पाव, बन पीजा, बर्गर, केक आदि के नमूने लिये गये थे ।

Health Side Effects of Eating Bread [Bread Khane Ke Nuksan]

  • रक्त में शर्करा व इन्सुलिन की मात्रा बढ़ती है । यह आवश्यकता से अधिक खाने की लत को बढ़ाता है । 
  • ब्रेड में ग्लूटेन नामक प्रोटीन पाया जाता है, जो आँतों की दीवारों को क्षतिग्रस्त करता है, जिससे पेट में दर्द और कब्ज होता है । यह पोषक तत्त्वों के अवशोषण को रोकता है । ग्लूटेन की एलर्जी मस्तिष्क से जुड़ी बीमारियों – विखंडित मनस्कता (Schizophrenia) और सेरेबेलर अटैक्सिया (Cerebellar ataxia) का कारण भी हो सकती है । 
  • इसमें फाइटिक एसिड जैसे एंटी न्यूट्रिएंट्स भी होते हैं, जो कैल्शियम, लौह तत्त्व और जस्ते के अवशोषण को रोकते हैं ।
  • ब्रेड से पेट तो भर जाता है लेकिन पोषण नहीं के बराबर मिलता है । अगर आपका बच्चा भूख लगने पर हर रोज ब्रेड ही खाता है तो वह कुपोषण का शिकार हो सकता है ।
  • यह आसानी से नहीं पचता । इससे पाचन-संबंधी कई बीमारियाँ होने का खतरा बढ़ता है । 
  • उपरोक्त हानियों के अलावा ब्रेड एक तामसी पदार्थ होने से मन-बुद्धि को भी तामसी बनाता हैं, थकान-आलस्य बढ़ाता है ।

मुस्लिम शिक्षिका ने उर्दू में लिखी रामायण, कहा- रामकथा शांति और भाईचारे का देती है संदेश

यूपी के कानपुर महानगर में सांप्रदायिक सौहार्द्र और आपसी भाईचारे की अनूठी मिसाल करते हुए एक मुस्लिम शिक्षिका ने उर्दू में राम कथा लिखी है। इसमें विभिन्न मुस्लिम विद्वानों के समय-समय पर रामकथा के संबंध में लिखे गए विचारों का भी समावेश किया गया है। रामचरित मानस की तमाम चौपाइयों को भी उर्दू में लिखा गया। इनका भावार्थ भी दिया गया है।

उर्दू में राम कथा लिखने वाली लेखिका माहे तलत सिद्दीकी चमनगंज स्थित जुबली गर्ल्स इंटर कालेज में हिंदी पढ़ाती हैं। उनकी मां हलीम डिग्री कालेज में उर्दू विभाग की अध्यक्ष रही हैं। सिद्दीकी ने बताया कि उन्होंने रामकथा लिखने का कार्य वर्ष 2016 में शुरू किया था जो इस वर्ष अप्रैल में पूरा हुआ है।

उन्होंने बताया कि मानस संगम परिवार के संस्थापक बद्री नारायण तिवारी ने उन्हें पुस्तक लिखने में सहयोग किया। साथ ही रामकथा के संदर्भ में मुस्लिम विद्वानों के कथन के संबंध में पुस्तकें भी दीं। इसके साथ ही उन्होंने रामचरित मानस भी पढ़ी। अपनी पुस्तक में सिद्दीकी ने सुंदर कांड, शबरी प्रसंग आदि के संबंध में भी विस्तार से लिखा है।

उनका कहना है कि रामकथा भी शांति और भाईचारे का संदेश देती है। उर्दू में लिखे होने की वजह से मुस्लिम समुदाय के लोग भी रामकथा को आसानी से पढ़ और समझ सकेंगे। इसे लिखने में उन्हें दो साल का समय लगा। उन्होंने कहा कि इसे उर्दू में लिखने के बाद मुझे अच्छा अहसास हो रहा है।


15 जनवरी को ही हर साल क्यों मनाया जाता है थल सेना दिवस ?

भारत में हर साल 15 जनवरी को सेना दिवस मनाया जाता है क्योंकि इसी दिन 1949 में लेफ्टिनेंट जनरल के•एम• करिअप्पा को सेना का पहला कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किया गया था | जनरल करिअप्पा ने भारत के आखिरी ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ जनरल सर फ्रांसिस बुचर से पदभार ग्रहण किया था |

क्या है संविधान दिवस और यह 26 नवंबर को क्यों मनाया जाता है ?

हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जाता है क्योंकि इस दिन  1949 में संविधान सभा ने भारतीय संविधान को औपचारिक तौर पर स्वीकार किया था जो 26/01/1950 को लागू हुआ | इसका मकसद नागरिकों के बीच संविधानिक मूल्यों का प्रचार करना है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा यह संविधान निर्माताओं की असाधारण कोशिशों को याद करने का दिन है |

गणेश शंकर विद्यार्थी: जीवन, कर्म और लेखन

 

डॉ राकेश शुक्ल
लेखक परिचय : डॉ राकेश शुक्ल (1967) विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म महाविद्यालय , कानपुर के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं | प्रो. शुक्ल के 100 से अधिक शोध पत्र और समीक्षा आलेख राष्ट्रीय शोध पत्रों में प्रकाशित हो चुके हैं तो वहीं 24 शोध पत्र पुस्तकों का हिस्सा हैं तथा उन्होंने 16 विद्यार्थियों का शोध निर्देशन तथा 21 विद्यार्थियों के लघु शोध का निर्देशन भी किया है | उन्होंने दर्जनों विषयों पर आकाशवाणी लखनऊ से अपने विचार रखने के साथ ही निरंतर तमाम पत्र-पत्रिकाओं के साथ न सिर्फ लेखन बल्कि सम्पादन का कार्य भी किया तथा तमाम पुस्तकों की समीक्षा और भूमिकाएँ लिखीं |

राष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रखर व्याख्यान के लिए जाने जाने वाले  प्रो. राकेश ने "जलता रहे दिया" (कविता संग्रह), "उनकी सृष्टि अपनी दृष्टि" जैसी तमाम पुस्तकें लिखीं जो कि पाठकों के बीच खूब लोकप्रिय हुईं | शिक्षण कार्य में सक्रिय प्रो. राकेश शुक्ल विभिन्न विश्वविद्यालयों में पी-एच०डी० के परीक्षक तथा विषय विशेषज्ञ एवं चयन समिति का हिस्सा हैं | डॉ शुक्ल को अब तक 'इनोवेशन लीडरशिप एवार्ड' (पं० बंगाल के राज्यपाल श्री केसरी नाथ त्रिपाठी द्वारा) , 'साहित्य सेवा सम्मान' (भारत के राष्ट्रपति, तत्कालीन राज्यपाल बिहार- श्री रामनाथ कोविन्द द्वारा) तथा जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय युवा केंद्र के "साहित्य श्री सम्मान" (गुजरात के राज्यपाल श्री ओपी कोहली द्वारा) जैसे तमाम सम्मानों द्वारा नवाज़ा जा चुका है | 


महान स्वातंत्र्य सेनानी, जुझारू पत्रकार, निर्भीक लेखक और समाजसेवी गणेश शंकर विद्यार्थी का जीवन, कर्म और लेखन अपने समय में राजनीतिक, सामाजिक जीवन को दिशा देने के लिए जितना उपयोगी था, उतना ही आज भी है। वे अपने समय के न सिर्फ स्वातंत्र्य वीर थे; वरन् पत्रकारिता में जिस ईमानदारी, त्याग, धैर्य और बलिदान की जरूरत थी, उसकी मिसाल बन गए थे। स्वातंत्र्य आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के अतिरिक्त अंग्रेज अधिकारियों एवं देशी नरेशों की निरंकुशता, उनके शोषण एवं दमनकारी नीतियों के विरुद्ध विद्यार्थी जी की लेखनी ने बड़े जन-जागरण का कार्य किया था। समाज के निर्धनों, किसानों, मजदूरों की समस्याओं को उजागर करने तथा सामाजिक जड़ताओं, अंधपरम्पराओं एवं कुरीतियों के विरुद्ध सामाजिक जागृति भी उनकी पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य रहा है।


बाल विद्यार्थी के रुझान का रुख और प्रथम गुरु 


 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले (ननिहाल) में जन्में विद्यार्थी जी के पूर्वज जौनपुर के मूल निवासी थे। 1857 के प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन के बाद उनके प्रपितामह बाबू देवी प्रसाद हथगाँव (फतेहपुर) आ गए थे। इनके पितामह बाबू वंश गोपाल आबकारी इंस्पेक्टर थे और पिता बाबू जयनारायण जी उर्दू, फारसी तथा दर्शन के विद्वान थे। धार्मिक विचारों से युक्त उनकी माँ श्रीमती गोमती देवी श्रीरामचरित मानस का नियमित पाठ करती थीं। उनके पास बोध कथाओं का अपरिमित भण्डार था जिन्हें वे बालक गणेश को रोज सुनाया करती थीं। जब विद्यार्थी जी मात्र पाँच वर्ष के थे; उनके पिता ग्वालियर रियासत में शिक्षक नियुक्त हुए, अतः उनकी प्रारम्भिक शिक्षा विदिशा एवं साँची के सांस्कृतिक वातावरण में हुई। सन् 1905 ई0 में उन्होंने अंग्रेजी मिडिल परीक्षा पास की। आगे की पढ़ाई के लिए उनके पिता ने अपने बड़े पुत्र शिवव्रत नारायण के पास कानपुर भेज दिया। शिवव्रत नारायण आर्य समाज से जुड़े हुए थे, जिनकी प्रेरणा से विद्यार्थी जी अपने समय की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं के पाठक बन चुके थे। कुछ दिन बड़े भाई तथा कुछ दिन पिता के पास रहते हुए उन्होंने व्यक्तिगत परीक्षा देकर एण्ट्रेन्स किया, तथा आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें कायस्थ पाठशाला इलाहाबाद भेज दिया गया। इलाहाबाद प्रवास उनके जीवन का ऐसा मोड़ था, जो उनके व्यक्तित्व की निर्मिति का आधार बना। यहाँ उनकी एफ0ए0 की औपचारिक पढ़ाई तो पीछे रह गई; जबकि राजनीतिक, सामाजिक और पत्रकारिता की गतिविधियों में उनका मन अधिक लगने लगा। लेखन के बीज तो पहले ही अंकुरित हो चुके थे, जब मिडिल की पढ़ाई के दौरान उन्होंने ‘हमारी आत्मोत्सर्गता’ नामक सुदीर्घ आलेख लिखा था। इलाहाबाद में वे ‘कर्मयोगी’ पत्र से इतना प्रभावित हुए कि वह पत्र उनकी किताबों के बैग में रहता था, जिसे स्कूल या घर, जहाँ भी समय मिलता तो पढ़ते। इसी दौरान वे इस पत्र के सम्पादक पं0 सुन्दरलाल के सम्पर्क में आये,और उनके आग्रह पर सम्पादन में सहयोग भी करने लगे। इस प्रकार पं0 सुन्दरलाल पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके प्रारम्भिक गुरु बने। उनके संपादन में प्रकाशित उर्दू के एक पत्र ‘स्वराज्य’ में भी विद्यार्थी जी की टिप्पणियाँ प्रकाशित होती थीं। यह पत्र राष्ट्रीय चेतना के उग्र आलेख प्रकाशित करने वाला एक ऐसा पत्र था, जो मात्र एक वर्ष ही चल पाया और अंग्रेज सरकार का कोपभाजन बनते हुए एक के बाद एक इसके आठ सम्पादकों को जेल जाना पड़ा था।

विद्यार्थी जी का इलाहाबाद प्रवास ज्यादा दिन नहीं रहा। उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कारण कानपुर आना पड़ा। अतः शिक्षा और पत्रकारिता में व्यवधान पड़ा। कानपुर आकर छोटी-मोटी नौकरियाँ कीं, ट्यूशन पढ़ाए और पी0पी0एन0 हाईस्कूल में शिक्षण कार्य किया, पर कहीं भी उनका मन नहीं लगा। इन्हीं दिनो हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के शिखर पुरुष आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को ‘सरस्वती’ के लिए एक युवा, उत्साही सहयोगी की आवश्यकता थी, अतः मित्र काशीनाथ द्विवेदी के आग्रह पर 02 नवम्बर 1911 को वे ‘सरस्वती’ के सहायक सम्पादक नियुक्त हुए और शीघ्र ही आचार्य द्विवेदी के स्नेहभाजक बन गए। उनका पहला लेख ‘आत्मोसर्ग’ ‘सरस्वती’ में ही प्रकाशित हुआ था। यह विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका थी, जबकि विद्यार्थी जी पत्रकारिता के माध्यम से 'स्वातंत्र्य समर' में भी अपना योगदान देना चाहते थे, अतः दिसम्बर 1912 में वे पं0 मदन मोहन मालवीय के अखबार ‘अभ्युदय’ में चले गए। यह पत्र घाटे में चल रहा था, पर विद्यार्थी जी मेहनत ओर उनकी विचारोत्तेजक टिप्पणियों की बदौलत उसकी पाठक संख्या बढ़ती चली गईऔर अखबार लोकप्रिय हो गया। यहाँ भी उन्होंने लगभग एक वर्ष योगदान दिया और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कारण पुनः कानपुर आना पड़ा।
'प्रताप' की स्थापना

विद्यार्थी जी का सपना तो कुछ और ही था। उनका सपना एक ऐसे पत्र के प्रकाशन का था, जिसके माध्यम से जन-जन में स्वाधीनता की अलख जगाई जा सके और मानवता का कल्याण भी किया जा सके। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से हिन्दी साप्ताहिक पत्र ’प्रताप’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया। पीली कोठी नामक किराये के भवन में चार महानुभावों ने मिलकर ‘प्रताप’ की नींव रखी। सभी ने एक सौ रूपये का सहयोग किया। इस प्रकार कुल चार सौ रूपये की पूँजी से अखबार शुरु हुआ। सम्पादक गणेशशंकर विद्यार्थी, मैनेजर नारायण प्रसाद अरोड़ा, मुद्रक-प्रकाशक शिवनारायण मिश्र वैद्य और कोरोनेशन प्रेस के मालिक यशोदानन्दन।

आजादी के प्रतीक महापुरुष महाराणा प्रताप के नाम पर प्रकाशित इस पत्र का उद्देश्य भी स्पष्ट था- पूर्ण स्वराज्य। मुख पृष्ठ की उद्देश्यपरक काव्य पंक्तियाँ (मोटो-लाइने) थीं, ‘‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश पर अभिमान है/वह नर नहीं, नर-पशु निरा है, और मृतक समान है।’’ ये पंक्तियाँ विद्यार्थी जी के अनुरोध पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखी थीं। प्रवेशांक में ही विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप की नीति’ शीर्षक से सम्पादकीय-अग्रलेख लिखा था, जिसमें इस पत्र के उद्देश्य पर तो प्रकाश पड़ता ही है, पत्रकारिता के आदर्शों और मूल्यों पर भी उनके मूल्यवान विचारों से हम अवगत होते हैं। ‘‘आज अपने हृदय में नयी-नयी आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्य पर पूर्ण विश्वास रखकर ‘प्रताप’ कर्म क्षेत्र में आता है। समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है, और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और जरूरी साधन हम भारत वर्ष की उन्नति को समझते हैं। उन्नति से हमारा अभिप्राय देश की कृषि, व्यापार, विद्या, कला, वैभव, मान-बल, सदाचार और सच्चरित्रता की वृद्धि से है। भारत को इस उन्नतावस्था तक पहुँचाने के लिए असंख्य उद्योगों, कार्यों और क्रियाओं की आवश्यकता है। इसमें मुख्यतः राष्ट्रीय एकता, सुव्यवस्थित, सार्वजनिक और सर्वांगीण शिक्षा का प्रचार, प्रजा का हित, भला करने वाली सुप्रबन्ध और सुशासन की शुद्ध नीति का राज-कार्यों में प्रयोग, सामाजिक कुरीतियों और अत्याचारों का निवारण और अत्मावलम्बन और आत्मशासन में दृढ़ निष्ठा है। हम इन्हीं सिद्धान्तों और साधनों को अपनी लेखनी का लक्ष्य बनाएँगे।’’ विद्यार्थी जी ने पत्रकारिता के जिन मापदण्डों की उस समय स्थापना की थी, वे एक ज्योति-स्तम्भ के रूप में आज भी हमारा पथ प्रदर्शन करते हैं। उन्होंने लिखा था कि, ‘‘किसी की प्रशंसा या अप्रशंसा किसी की प्रसन्नता या अप्रसन्नता, किसी की घुड़की या धमकी हमें अपने मार्ग से विचलित न कर सकेगी। साम्प्रदायिक या व्यक्तिगत झगड़ों में ‘प्रताप’ सदा अलग रहने की कोशिश करेगा। उसका जन्म किसी सभा, संस्था, व्यक्ति या मत के पालन-पोषण, रक्षा तथा विरोध के लिए नहीं हुआ है, किन्तु उसका मत स्वातंत्र्य विचार और उसका धर्म सत्य होगा। हम जानते हैं कि इससे हमें बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, और इसके लिए बड़े भारी साहस और आलम्बन की आवश्यकता है।"

और यही हुआ। ‘प्रताप’ को आने वाले समय में बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। प्रारम्भिक कठिनाई तो यही हुई कि सोलह अंकों तक पत्र निरन्तर घाटे में चला। छपाई का भुगतान न होने के कारण यशोदानन्दन जी प्रेस से अलग हो गए। नारायण प्रसाद अरोड़ा अपना अलग अखबार निकालने लगे। बावजूद इसके बिना विचलित हुए शिवनारायण जी और विद्यार्थी जी अखबार निकालते रहे। काशीनाथ द्विवेदी , कमलापत सिंहानियाँ तथा सेठ राम गोपाल की मदद से न सिर्फ कर्ज चुकाया गया, वरन् खुद के प्रेस की व्यवस्था भी कर ली गई। यह पत्र अब कानपुर के फीलखाना से प्रकाशित होने लगा था। 

'प्रताप' के महाप्रताप की कहानी 

24 अप्रैल 1915 को रात के अँधेरे में प्रताप प्रेस, विद्यार्थी जी एवं शिवनारायण मिश्र के आवास पर पुलिस ने छापेमारी की। उन्हें जब कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली तो ग्राहकों की सूची, सदस्यता संबंधी रजिस्टर तथा कुछ पुस्तकें उठा ले गई। इससे ग्राहकों में भय उत्पन्न हुआ, अनेक लोगों ने पत्र लेना बंद कर दिया, जिससे प्रताप प्रेस को घाटा उठाना पड़ा, पर विद्यार्थी जी विचलित नहीं हुए और दृढ़तापूर्वक पत्र निकालते रहे। उन्हीं दिनों 1916 ई0 में लक्ष्मण सिंह चौहान (सुभद्रा कुमारी चौहान के पति) का नाटक ‘कुलीप्रथा’ प्रताप प्रेस से प्रकाशित हुआ था, अंग्रेज सरकार ने इसे तुरन्त जब्त कर लिया, और एक हजार रूपये की जमानत माँगी। बचाव के सारे प्रयास विफल होने पर अन्ततः उक्त धनराशि जमा की गई।

28 से 31 दिसम्बर 1916 को लखनऊ में अखिल भारतीय काँग्रेस का खुला अधिवेशन आयोजित हुआ था, जिसमें महात्मा गाँधी की उपस्थिति रही। उसी दौरान 29 दिसम्बर 1916 को विद्यार्थी जी के संयोजन में आयोजित ‘अखिल भारतीय भाषा एवं लिपि सम्मेलन’ की अध्यक्षता भी गाँधी जी ने की तथा अपना महत्वपूर्ण उद्बोधन दिया। विद्यार्थी जी के आग्रह पर वे अधिवेशन के बाद कानपुर भी आये थे, जहाँ बालगंगाधर तिलक तथा मि0 पोलक के साथ वे प्रताप प्रेस में ही ठहरे थे।

अनेक विद्वानों का मानना है कि चम्पारण में नील की खेती करने को विवश पीड़ित, प्रताड़ित किसानों के प्रतिनिधि राजकुमार शुक्ल की भेंट गाँधी जी से कानपुर में विद्यार्थी जी ने ही कराई थी, फलस्वरूप चम्पारण आन्दोलन हुआ, जिसके माध्यम से भारत में सर्वप्रथम गाँधी जी के नायकत्व ने उभार पाया। इतना ही नहीं विद्यार्थी जी ने नील की खेती प्रकरण पर अंग्रेज जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ ‘प्रताप’ में निरन्तर तेज-तर्रार खबरें प्रकाशित कीं। उन्होंने वहाँ अपने संवाददाता भेजकर विस्तृत रपटें तैयार कराईं, जिससे अंग्रेज सरकार नाराज हो गई और अनेकशः ‘प्रताप’ प्रेस को नोटिस भेजकर कड़ी चेतावनी दी गई पर विद्यार्थी जी भला झुकने वाले कहाँ थे। वे निर्धन किसानों एवं कल-कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की समस्याओं एवं उनकी दुरवस्था को न सिर्फ ‘प्रताप’ में प्रकाशित करते रहे; वरन् उन्हें संगठित करने के प्रयास भी किये। सन् 1916 से 1919 ई0 के दौरान कानपुर में पच्चीस हजार से अधिक मजदूरों के संगठन ‘मजदूर सभा’ का नेतृत्व किया तथा उनके पत्र ‘मजदूर’ के प्रकाशन में भी सहयोग किया। उनके द्वारा मजदूरों का नेतृत्व किये जाने से कानपुर का अंग्रेज मजिस्ट्रेट इतना नाराज था कि उसने प्रताप प्रेस के ट्रस्ट को मान्यता देने के लिए निर्धारित जमानत राशि एक हजार को मनमाने ढंग से बढ़ाकर दो हजार कर दिया था। उसकी दलील थी कि इस ट्रस्ट के एक सदस्य गणेश शंकर विद्यार्थी हैं, जिन्होंने मजदूरों को सरकार के खिलाफ भड़काने का कार्य किया है।


22 अप्रैल 1918 को ‘प्रताप’ में नानक सिंह ‘हमदम’ की क्रान्तिकारी कविता ‘सौदा-ए-वतन’ प्रकाशित करने पर ‘प्रताप’ पर राजद्रोह की कार्यवाही की गई और एक हजार रूपये की जमानत राशि जब्त कर ली गई। आर्थिक संकट के कारण उक्त राशि की व्यवस्था न हो सकी अतः लगभग एक महीने तक पत्र का प्रकाशन स्थगित रहा। 8 जुलाई 1915 के अंक में जब सरकार द्वारा ‘प्रताप’ के उत्पीड़न की खबरें प्रकाशित हुईं तो उसके पाठकों एवं व्यवसायियों ने आठ हजार रूपये का सहयोग भेजा। इससे विद्यार्थी जी में नई आशा एवं उत्साह का संचार हुआ। वे एक नैतिक आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति थे। अतः एक ट्रस्ट का गठन कर उक्त धनराशि को उसके खाते में जमा कर दिया। इस ट्रस्ट में विद्यार्थी जी ने स्वयं और शिवनारायण मिश्र के अतिरिक्त मैथिलीशरण गुप्त, डाॅ0 जवाहर लाल रोहतगी तथा लाला फूलचंद को भी शामिल किया।

मुकदमों का दौर

23 नवम्बर 1920 को यह पत्र दैनिक हो गया था। जैसा कि प्रारम्भ से ही ‘प्रताप’ का उद्देश्य था कि वह न सिर्फ अंग्रेजों की निरंकुशता और उनकी लूट को उजागर कर रहा था वरन् देशी नरेशों, सामंतो, जमींदारों और भ्रष्ट अधिकारियों के द्वारा आम आदमी के उत्पीड़न, रिश्वत और भ्रष्टाचार को भी बेनकाब कर रहा था। इसी कड़ी में रायबरेली के जमींदार वीरपाल सिंह के अत्याचारों को भी इस पत्र ने प्रमुखता से छापा। जिसने गरीब किसानों पर गोली चलवाई थी। कारण, कुछ किसानों ने उसके द्वारा किये जा रहे अपने शोषण का विरोध किया था। इससे नाराज होकर उसने ‘प्रताप’ पर मानहानि का दावा ठोंक दिया। जैसा कि हम जानते हैं, उन दिनों अंग्रेज अधिकारी, न्यायाधिकारी और सामंतों, जमींदारों में एक प्रकार का गठजोड़ हुआ करता था।

न्यायपालिका अंग्रेज सरकार के इशारों पर नाचती थी, फलस्वरूप विद्यार्थी जी और शिवनारायण मिश्र पर दस-दस हजार रूपये की जमानत तथा पाँच-पाँच हजार रूपये का मुचलका, कुल पन्द्रह-पन्द्रह हजार रूपये जमा करने तथा छह-छह महीने की कैद की सजा सुनाई गई, जबकि इस केस में पं0 मोतीलाल नेहरु, जवाहर लाल नेहरु सहित लगभग पचास से अधिक राजनेताओं और अधिवक्ताओं ने पैरवी की थी। उस दौरान मुकदमों की पैरवी करने तथा जेल जाने के कारण ‘प्रताप’ का सम्पादन क्रमशः कृष्णदत्त पालीवाल, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ तथा माखन लाल चतुर्वेदी ने बखूबी निभाया। इस मामले में विद्यार्थी जी को कानपुर और लखनऊ की जेलों में लगभग आठ महीने व्यतीत करने पड़े।

रायबरेली केस से ‘प्रताप’ अभी उबर नहीं पाया था कि 1926 ई0 में मैनपुरी मानहानि केस का सामना करना पड़ा। शिकोहाबाद के एक भ्रष्ट थानेदार की घूसखोरी की खबर छापने पर उसने भी मानहानि का मुकदमा कर दिया था। सम्पादक गणेशशंकर विद्यार्थी तथा उन दिनों के मुद्रक-प्रकाशक सुरेन्द्र शर्मा को यह मुकदमा लड़ना पड़ा और दोनों को चार-चार सौ रुपये का जुर्माना अथवा छह-छह महीने की सजा हुई। विद्यार्थी जी ने जुर्माना न देकर जेल जाने का सहर्ष निर्णय लिया लेकिन मैनपुरी-आगरा क्षेत्र के ‘प्रताप’ के पाठकों ने चैबीस घण्टे में ही उक्त धनराशि अदा करके उन्हें जेल से मुक्त करा लिया। बाद में हाईकोर्ट से वे बाइज्जत बरी हुए। कोर्ट ने जमानत राशि वापस करने का निर्णय सुनाया और दरोगा के खिलाफ जाँच की कार्यवाही का निर्णय भी।

‘प्रताप’ पर एक और मुकदमा सन् 1928 में नरसिंहपुर मानहानि केस भी चला। वहाँ के ढोंगी महन्त और उसके शिष्यों के पाखण्ड और भ्रष्ट कारनामों का भण्डाफोड़ ‘प्रताप’ ने किया था। बाद में उन पाखण्डियों ने और अधिक फँसने के डर से केस वापस ले लिया। पत्रकारिता और स्वातंत्र्य-आंदोलन के कारण विद्यार्थी जी को पाँच बार जेल की यात्रा करनी पड़ी थी।

‘प्रताप’ की लोकप्रियता अपने समय में चरम पर थी। यह एक ऐसा पत्र था जिसमें समाज के हर वर्ग के दुःख और उनकी तकलीफों को वाणी मिलती थी। उनसे संघर्ष करने की ताकत और अन्यायी, अत्याचारी का सशक्त प्रतिकार करने की सामर्थ्य भी। ‘प्रताप’ ने मजदूरों के हक में आवाज उठाने के साथ-साथ किसानों को संगठित करने के लिए भी समय-समय पर अभियान चलाया। सन् 1921 में प्रकाशित अवध के किसान आन्दोलन की खबरों की आँच इंग्लैण्ड की सरकार तक पहुँच गई थी, उसने लंदन स्थित भारतीय सचिवालय के माध्यम से भारत के तत्कालीन वायसराय से रिपोर्ट माँगी, जिससे संयुक्त प्रान्त का तत्कालीन गवर्नर हरकोर्ट बटलर चिंतित हो गया था।

‘प्रताप’ में समय-समय पर अनेक रियासतों के निरंकुश और अत्याचारी राजाओं, सामंतों के विरुद्ध भी विस्तृत खबरें, रपटें और आलेख प्रकाशित होते रहे, जिससे वे विद्यार्थी जी को अपना शत्रु समझने लगे थे। इन रियासतों में राजस्थान की बिजौलिया और भरतपुर तथा मध्यप्रदेश की ग्वालियर रियासतें प्रमुख थीं। नागपुर के झंडा सत्याग्रह की खबरें भी ‘प्रताप’ में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थीं।

नया रुख , नया मोड़, क्रांतिकारियों का जोश और विद्यार्थी की शहादत 

प्रवेशांक के सोलह पृष्ठों से प्रारम्भ होने वाला यह पत्र सन् 1930 ई0 तक चालीस पृष्ठों का हो गया था। वार्षिक सदस्यता राशि स्थानीय पाठकों के लिए मात्र 3 रूपये तथा बाहरी पाठकों के लिए 3.50/- हुआ करती थी। ‘प्रताप’ के अनेक अविस्मरणीय विशेषांक भी प्रकाशित हुए। प्रकाशन के एक वर्ष पूरे होने पर सन् 1914 में उसका विशेषांक ‘राष्ट्रीय अंक’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। तीसरी वर्षगाँठ पर एक और ‘राष्ट्रीय अंक’ प्रकाशित हुआ। पाँचवी वर्षगाँठ 1918 में ‘स्वराज्य’ शीर्षक से एक और महत्वपूर्ण विशेषांक प्रकाशित हुआ था, जिसमें अपने समय के शीर्षस्थ विचारकों, साहित्यकारों की राष्ट्रीय चेतना की रचनाएँ प्रकाशित हुई थीं।

प्रताप कार्यालय राष्ट्रवादियों और क्रान्तिकारियों के साथ साहित्यकारों का भी केन्द्र था। रामप्रसाद ‘विस्मिल’, अश्फाक उल्ला खाँ, ठा0 रोशन सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, शिववर्मा तथा छैल बिहारी दीक्षित ‘कण्टक’ आदि का उन्होंने समय-समय पर सहयोग और मार्गदर्शन किया था। सरदार भगत सिंह तो अपनी फरारी के दिनों में वेश बदलकर प्रताप कार्यालय में रहे थे। उन्होंने बलवंत सिंह, छद्मनाम से ‘प्रताप’ में लेख भी लिखे। विद्यार्थी जी ने श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ से झण्डागीत की रचना कराई थी, जो उन दिनों आजादी का तराना बन गया था।

हम जानते हैं कि विद्यार्थी जी की पत्रकारिता और लेखन का मूल उद्देश्य पूर्ण स्वराज्य और सुराज था, जिसकी वजह से उन्होंने ‘सरस्वती’ जैसी शीर्षस्थ साहित्यिक पत्रिका के सह सम्पादक के दायित्व को छोड़ दिया था, पर साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीयता की अलख जगाना वे अच्छी तरह जानते थे। इसका श्रेय उन्हें ‘प्रभा’ पत्रिका के माध्यम से मिला। ‘प्रभा’ का प्रकाशन, सम्पादन 1913 ई0 में खण्डवा से विख्यात कवि, साहित्यकार, माखनलाल चतुर्वेदी ने प्रारम्भ किया था किन्तु अपरिहार्य कारणों से सन् 1916 ई0 में इसका प्रकाशन स्थगित हो गया तब विद्यार्थी जी ने आग्रह करके इसे प्रताप प्रेस से छापना प्रारम्भ किया। सन् 1920 से 1925 ई0 तक यह प्रताप प्रेस से प्रकाशित होती रही। यह मूलतः राजनीतिक, सामाजिक पत्रिका थी पर उसमें साहित्य की विविध विधाओं में विविध विषयों पर अपने समय के शीर्षस्थ साहित्यकारों की उच्चतम कोटि की रचनाएँ प्रकाशित होती थीं। उसमें प्रकाशित राष्ट्रीय चेतना की अनेक कविताएँ स्वातंत्र्य सेनानियों, क्रान्तिकारियों के कण्ठ का हार बनीं। माखनलाल चतुर्वेदी का प्रसिद्ध गीत ‘पुष्प की अभिलाषा’ सर्वप्रथम ‘प्रभा’ में ही प्रकाशित हुआ था। मुंशी प्रेमचंद, पं0 विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, निराला जी, सनेही जी, सम्पूर्णानन्द, चन्द्रशेखर शास्त्री, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, इलाचंद्र जोशी, चतुरसेन शास्त्री, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, रायकृष्णदास तथा चण्डी प्रसाद जैसे अनेक प्रसिद्ध साहित्यकार ‘प्रभा’ के नियमित लेखक थे। विद्यार्थी जी भी ‘एक बैठा-ठाला ग्रेजुएट’ छद्म नाम से ‘प्रभा’ में सामाजिक व्यंग लिखा करते थे। वे अन्य पत्रों में भी लगभग आधा दर्जन छद्म नामों से लिखा करते थे। 

विद्यार्थी जी के सान्निध्य और मार्गदर्शन में अनेक महानुभावों ने पत्रकारिता और सम्पादन की कला सीखी तथा कालान्तर में यश और कीर्ति पाई। इनमें बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, कृष्यादत्र पालीवाल, दशरथ प्रसाद द्विवेदी, श्रीराम शर्मा, देवव्रत शास्त्री, रमाशंकर अवस्थी, सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य, राम दुलारे त्रिवेदी, सुरेन्द्र शर्मा, श्रीनिवास बालाजी हार्डीकर, विष्णुदत्त शुक्ल तथा प्रकाश नारायण शिरोमणि के नाम प्रमुख हैं।

मात्र चालीस वर्ष की आयु पाने वाले विद्यार्थी जी जीते-जी किंवदन्ती बन गए थे। जिस आयु में आज के युवा अपने जीवन की दिशा नहीं तय कर पाते हैं, उन्होंने पूरे समाज और राष्ट्र की दिशा को तय करने का कार्य किया था। अहर्निश राष्ट्र सेवा को समर्पित एक ऐसा व्यक्ति जो पत्रकारिता, स्वातंत्र्य समर, समाज सेवा, सामाजिक, राजनीतिक संगठन और लेखन-सम्पादन में एक साथ सक्रिय रहा हो। इन सबके साथ जिसने कोर्ट-कचहरी और जेल जीवन का भी सहर्ष वरण किया हो, उसकी विलक्षण प्रतिभा, अदम्य साहस और अटूट लगन को दर्शाता है। सक्रिय राजनीति में रहते हुए वे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे थे, पर राजनीति के दाँव-पेंच और स्वार्थी राजनीतिज्ञों के मुखर आलोचक थे।

सामाजिक सद्भाव और साम्प्रदायिक एकता के लिए वे निरन्तर प्रयत्नशील रहे। इस हेतु उनकी लेखनी भी सक्रिय रही। यहाँ तक कि उनका बलिदान भी समाज को संदेश देकर गया। 23 मार्च 1931 को सरदार भगत सिंह तथा उनके साथियों को लाहौर षड़यंत्र के केस में फाँसी की सजा दी गई थी। 24 मार्च को कानपुर में अंग्रेजों द्वारा सुनियोजित दंगे भड़काए गए। उन्हीं दंगों में कानपुर के चौबेगोला स्थान पर विद्यार्थी जी ने अपनी आहुति दी। एक-दूसरे के खून के प्यासे हिन्दू-मुसलमान दंगाइयों को जैसे ही विद्यार्थी जी की शहादत के बारे में पता चला, वैसे ही दंगे रुक गए। दोनों ओर के दंगाइयों ने घोर प्रायश्चित किया। वस्तुतः वे दोनो वर्गों के मसीहा थे।

गणेश शंकर विद्यार्थी मूलतः पत्रकार थे पर पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके अग्रलेख (सम्पादकीय लेख) अथवा लेख गम्भीर मनन-चिन्तन और भाषा-शैली के वैशिष्ट्य में साहित्यिक कोटि के हैं। वैसे तो ये हिन्दी में वैचारिक निबन्धों की कोटि में माने जाएँगे पर इनमें उनका व्यक्तित्व भी प्रतिबिम्बित है। उनका कोई भी लेखन निरुद्देश्य नहीं है। सभी किसी न किसी रूप में समाज में राष्ट्रीय या सामाजिक जागरण का मंत्र फूँकते हैं।



प्रताप प्रेस की जर्जर स्थिति एवं सामाजिक कोशिशें 

दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि प्रताप प्रेस के जिस  भवन ने सारे देश में वैचारिक , राजनीतिक क्रांति की अलख जगाई , वह आज अपनी बदहाली पर आँसू बहा रहा है । कानपुर के फीलखाना क्षेत्र में स्थित इस जर्जर इमारत को एक स्मारक के रूप में संरक्षित करने के लिये किसी भी सरकार ने पहल नहीं की, और न ही अभी तक इस हेतु कानपुर की सामाजिक संस्थाओं या राजनीतिक व्यक्तियों ने कोई गम्भीर पहल की ।

इस भवन तक बहुत मुश्किल से पहुँचा जा सकता है । अत्यंत जीर्ण-शीर्ण भवन में किराएदारों का कब्जा है , केवल एक कमरे में कुछ पुरानी मशीनें रखी हैं , जिस पर ताला लगा हुआ है और चावी का अता-पता नहीं ।


2012 में कानपुर के अनेक साहित्य-सेवियों और पत्रकारों ने 'प्रताप शताब्दी समारोह समिति' के माध्यम से पूरे एक वर्ष तक विद्यार्थी जी और 'प्रताप' की स्मृति में अनेक कार्यक्रम , संगोष्ठियाँ आदि आयोजित की थी । उस दौरान केंद्र और प्रदेश सरकार से अनेक माँगे भी की गई थीं । यथा – कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय की स्थापना , उनके जन्मदिन या 'प्रताप' की स्थापना दिवस को राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस घोषित करना तथा प्रताप प्रेस एवं विद्यार्थी जी के शहादत स्थल चौबेगोला को स्मारक के रूप में संरक्षित करना आदि , पर सरकार की ओर से उस पर कोई भी सुनवाई नहीं हुई। इधर युवा लेखक मृदुल पाण्डेय ने 'प्रताप प्रेस पुनरुत्थान समिति' के माध्यम से उक्त भवन को स्मारक के रूप में विकसित करने का अभियान चलाया है।

एक सुखद उपलब्धि यह हुई कि इन पंक्तियों के लेखक के प्रयासों से छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के एम०ए० (उत्तरार्द्ध) हिन्दी के तृतीय प्रश्नपत्र के पाठ्यक्रम में विद्यार्थी जी की पुस्तक 'जेल - जीवन की झलक' शामिल की गई है।

चित्रावली

श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी इंटर कॉलेज , पांडु नगर, कानपुर में विद्यार्थी प्रतिमा का अनावरण 

श्री लाल बहादुर शास्त्री श्रद्धांजली अर्पित करते हुए 

पिताश्री मुंशी जयनारायण को अंतिम विदाई सिरहाने बैठे अग्रज शिवव्रत नारायण और गणेश जी 
गणेश दंपती

पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा चित्र पर माल्यार्पण 

विद्यार्थी परिवार