Saturday, July 20, 2024

बाबा मस्तराम का ब्रह्मचारी आश्रम




एक बार की बात है ब्राह्मणा नंद नामक संत भ्रमण करते हुए नदी के उस किनारे पहुँचे जहाँ पर आज आश्रम है, पूर्व में वहाँ एक टीला हुआ करता था, वह उस टीले पर अपनी कुटिया बना कर रहने लगे उनके शिष्य के रूप उस समय प्रख्यात थे "करिया बाबा" जिनका असली नाम आज भी लोगों को नहीं पता है, फिर उनके शिष्य हुए श्री मतंगा नंद स्वामी जिन्होंने अपना शिष्य बनाया गोविंदा नंद स्वामी जी को जिसके बाद गोविंदा नंद जी ने अपना शिष्य बनाया था, बाबा मस्त राम जी को जिनका देहावसान वर्ष 2003 में हुआ था | यह आश्रम के अंतिम महंत थे, वर्ष 2003 में उनकी मृत्यु के बाद कोई भी व्यक्ति इस आश्रम का प्रमुख नहीं हुआ बल्कि आश्रम क्षेत्रीय ग्राम निवासियों के सहयोग से संचालित होता है, गंगा के एकांत में बसे शान्तिमय आश्रम में आज भी बाबा मस्तराम की समाधी और उनकी मूर्ति बनी हुई है |

बाबा मस्तराम ब्रह्मचारी थे वह सुभानपुर के निवासी थे , इसलिए निकट क्षेत्र में आश्रम भी "ब्रह्मचारी आश्रम" के नाम से जाना जाता है |

क्रांतिकारी मुनेश्वर अवस्थी के परिवार के लोग ज़मींदार थे, जिनमें से पंडित गया प्रसाद अवस्थी के पिता जी श्री बाबू राम अवस्थी इस आश्रम की देख रेख और कंस्ट्रक्शन का काम अपने निजी खर्चे से करवाते थे, जिसमें कि गंगा स्नान करने आने वालों के लिए एक अतिथि कक्ष और बरामदे के साथ ही एक मंदिर भी बनवाया था, जो कि समय के साथ कालग्रस्त हो गया जिसके कुछ अंश काफी समय बाद देखने को मिले थे| 

आश्रम संबंधित इन सब जानकारियों को देने वाले मंदिर के पुजारी श्री बाबा हरजिंदर दास जी वर्तमान में मोइद्दीनपुर गाँव में ही रहते हैं, अविवाहित हैं और मूलत: उसी गाँव के रहने वाले हैं | उन्होंने बताया कि इस आश्रम से गाँव वालों की मान्यता जुड़ी हुई हैं इस आश्रम और मंदिर का न तो कोई ट्रस्ट है न ही सोसाइटी अथवा संस्था, इसका संचालन सिर्फ ग्रामीणजनों के सहयोग और ईश्वर की कृपा से हो रहा है | वर्तमान में तो प्रतिदिन यहाँ सुबह शाम आरती होती है लेकिन वैसे प्रतिवर्ष कथाएं हुआ करती थी लेकिन इस वर्ष लॉकडाउन और कोविड के चलते वार्षिक कथा संभव नहीं हो पाई |






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Thursday, May 23, 2024

पुस्तक समीक्षा : - चंद्रशेखर आजाद मिथक बनाम यथार्थ


डॉ सुमन शुक्ला
विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग रामसहाय राजकीय महाविद्यालय
शिवराजपुर, कानपुर नगर

डॉ• सुमन के 25 से अधिक शोधपत्र अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय जनरल पर प्रकाशित हो चुके हैं | जिनमें चार शोध पत्रों को उत्कृष्ट लेखन हेतु पुरस्कृत भी किया जा चुका है | 2011 में यूजीसी द्वारा स्वीकृत वृहद शोध परियोजना में सहायक शोध निदेशक पद पर कार्य करने का अनुभव भी हांसिल है |

ओजस्वी वक्ता होने के साथ ही डॉ• सुमन की जनजातीय इतिहास एवं युग युगीन कन्नौज नामक दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं | डॉ• सुमन उत्तर प्रदेश इतिहास समिति एवं राष्ट्रीय इतिहास समिति की सक्रिय सदस्या भी हैं |

चंद्रशेखर आजाद मिथक बनाम यथार्थ प्रताप गोपेंद्र कि यह पुस्तक ऐतिहासिकता और प्राथमिक स्रोतों का मणिकांचन योग है. यह किताब डायरी, नोट्स,समकालीन समाचार पत्र, ब्रिटिश रिपोर्ट्स,साक्षात्कार,हिंदी और अंग्रेजी ग्रन्थों के साथ आजाद के जन्म से लेकर वीरगति तक शब्द दर शब्द तथ्यों को समेकित करती है, व्याख्या करती है और उनका परीक्षण करती है, इतिहास के अध्यताओं को मानसिक खुराक देती है। नए शोधों को आधार देती है

पुस्तक में भूमिका और परिशिष्ट के मध्य में  12 अध्यायों में चंद्रशेखर आजाद के जन्म,उनके पूर्वज,क्रांति पथ पर उनका अग्रसर होना,हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के सेनापति के रूप में ही  वीरगति की प्राप्ति,एक चलचित्र के रूप में संपूर्ण घटनाक्रम पाठक के सामने चलता है।

चंद्रशेखर आजाद और कानपुर का संबंध इस पुस्तक के माध्यम से जिस तरह स्थापित होता है,अनेक अनछुए तथ्यों एवं पहलुओं के माध्यम से कानपुर और चंद्रशेखर आजाद का संबंध बड़ा मजबूती से सामने आता है।

चंद्रशेखर आजाद के पूर्वज भौंती प्रतापपुर कानपुर के रहने वाले थे। इसकी पुष्टि आजाद के साथ रहने वाले अनेक साथियों ने अपने-अपने लेखों में की है।


·     · 1939 में प्रकाशित पंडित रामदुलारे त्रिवेदी ने काकोरी कांड के दिलजले नामक पुस्तक में आजाद के पिता का जन्म स्थान भौंती लिखा है.

·       · श्रीमती शकुंतला शुक्ला ने अपने संस्मरण 'अमर शहीद श्री चंद्रशेखर आजाद की पूजनीय माता जी से दो बार भेंट' में 1947 - 48 में स्वजगरानी देवी से मुलाकात के क्रम में लिखा है 'मैंने सुना था कि आजाद कानपुर के पास के रहने वाले तथा चट्टू या दमा के तिवारी थे। कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे।"

·     · आजाद के सहयोगी और क्रांतिकारी मित्र विश्वनाथ में चंपारण और मनमत नाथ गुप्ता भी अपनी संस्मरणीय पुस्तकों में आजाद के पूर्वजों का गांव कानपुर भौंती  ही लिखते हैं।

·      ·  अनेक तथ्यों के साथ-साथ सी.आई.डी. अधिकारी शंभूनाथ शुक्ला( पृष्ठ 35)के एक पत्र द्वारा इस बात की पुष्टि होती है जिसमें पनकी के पास के एक गांव को आजाद के पुरखों का गांव बताया गया है, जो निसंदेह भौंती ही है।

आजाद का बनारस प्रवास संस्कृत शिक्षा आगे चलकर आजाद की क्रांतिकारी व्यक्तित्व के विकास में भी बहुत अधिक सहायक हुई जिस समय आजाद झांसी में रहे वहां कुछ समय वह पंडित की भूमिका में भी रहे तो उनकी संस्कृति की शिक्षा उनके बहुत काम आई।

आजाद की बाल्यावस्था, काशी प्रवास के दौरान महान क्रांतिकारी का सत्याग्रही स्वरूप निश्चय ही मन को मोहता है,वहीं तथ्यात्मकता ऐतिहासिकता की पुष्टि भी करती है। सन 1920-22 तक का समय आजाद की समझ,दायित्व बोध और लोकप्रियता का दायरा बढ़ाता हुआ दिखाई देता है।

संयुक्त प्रांत में यही वह समय है जब बनारस और कानपुर क्रांतिकारी संगठनों के विशेष केन्द्रों के रूप में दिखाई देते हैं और चंद्रशेखर आजाद इनके नायक।

 मेकिंग ऑफ़ आजाद

1913 में कानपुर में प्रताप पत्र निकलने लगा था। संयुक्त प्रांत के सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी गतिविधियों जोरों पर थी।ऐसे ही समय 1920 में चंद्रशेखर घर से काशी संस्कृत पढ़ने आए। नवंबर 1920 में महात्मा गांधी का काशी दौरा हुआ असहयोग के आवाहन ने छात्रों में खलबली मचा दी। फरवरी 1921 में गांधी दोबारा काशी आए और काशी विद्यापीठ की स्थापना की। फरवरी,1921 में ही 'असहयोगी संस्कृत छात्र समिति' बनी जिसमें चंद्रशेखर शामिल हुए।

प्रताप गोपेंद्र लिखते हैं बनारस के इसी उत्तेजना भरे वातावरण में सुदूर भाबरा के वन से आया है एक अशांत बालक भी सब देख सुंदर समझने की कोशिश कर रहा था।

मेरी दृष्टि में सबसे रोचक अध्याय है सत्याग्रह एवं आजाद है

आगे गांधी के आवाहन पर आजाद पाठशाला छोड़कर पूरी तरह असहयोग कार्य में निमग्न हो गए। दिसंबर,1921 में उन्हें एक दिन की शादी सजा मिली। फरवरी,1922 में 12 बेतों का क्रूरतम दंड मिला।

जून 1922 में ₹20 का अर्थ दंड मिला। जिसका वर्णन उस समय काशी से प्रकाशित दैनिक आज अखबार की खबरों में अक्षरशः मिलता है पृष्ठ 121

जहाँ सजा का कारण नाम पता बताने से इनकार करना डराने के लिए दी गई सजा पर हंसना और कलेक्टर के सामने पेश करने पर माफ़ी ना मांगना था  पृष्ठ 129

1 सितंबर 1922 को उन्हें ज्ञानवापी में सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया गया

चौरी चौरा के कारण महात्मा गांधी फरवरी 1922 में ही सहयोग वापस ले चुके थे यही वह समय था चंद्रशेखर समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें गांधी के चरखे से आजीवन जुड़े रहना आजाद जैसे व्यक्तित्व के लिए संभव नहीं था अन्य कोई मार्ग दिख नहीं रहा था वह दामोदर स्वरूप सेठ के संपर्क में आए जैसा कि श्री राजाराम शास्त्री के संस्मरण से स्पष्ट है कि कारतूसों का लेनदेन वहीं से शुरू हुआ।

आजाद के सहयोगी प्रणवेश चटर्जी जो काशी विद्यापीठ में आजाद संपर्क में आए थे उन्होंने ही आजाद को बनारस अनुशीलन दल से जोड़ा।

बनारस के साथ-साथ अनेक जिलों में संगठन खड़ा करने का प्रयास जारी था। कानपुर में हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के नाम से सुरेश चंद्र भट्टाचार्य जो चटाई मोहाल में लगभग 3 साल से नजर बंद थे ने शाखा खोली मणिलाल स्वास्थ्य वीरभद्र तिवारी को इसका सदस्य बनाया गया।

संगठन का कार्य जैसे-जैसे बड़ा पैसों की मांग बढ़ती गई

आय का नियमित स्रोत होने के कारण इस मांग को पूरा करने के लिए श्री योगेश चंद्र ने मनी एक्शन की योजना बनाई। रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में लगभग पांच मनी एक्शन कराए गए चंद्रशेखर ने सभी ने में भाग लिया।

काकोरी षड्यंत्र केस अपने समय का सबसे बड़ा क्रांतिकारी मुकदमा था जिसने सिर्फ आजाद के काशी प्रवास का अंत कर दिया एवं रिपब्लिकन एसोसिएशन में नेतृत्व को ही आमूल चूल बदल कर रख दिया। आजाद बतौर सेनापति उभर कर सामने आए। इस मुकदमे में 20 देशभक्तों को सजा मिली थी। मोतीलाल नेहरू, बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन ,गणेश शंकर विद्यार्थी ने क्रांतिकारियों के प्रति खुले रूप से सहानुभूति प्रदर्शन किया।प्रताप ने देश के नररत्न शीर्षक से समाचार छापा।  इन क्रांतिकारियों को छुड़ाने के लिए डिफेंस फंड खोला गया जिसमें कानपुर ने खुलकर योगदान दिया। प्रताप कार्यालय इन तरूणों का गढ़ बन गया। डीएवी कॉलेज का हॉस्टल भी क्रांतिकारियों का केंद्र रहा। पटकापुर के बलभद्र प्रसाद मिश्र के घर क्रांतिकारियों के लिए हमेशा खुले रहे। सीआईडी की नजर आजाद पर हमेशा रहती थी, 9 अगस्त 1925 को काकोरी ट्रेन एक्शन की सी आई डी ब्रीफ में दर्शाया गया है इस घटना में जो क्रांतिकारी शामिल हुए थे उनके नेता चंद्रशेखर आजाद ही थे।

'इंस्पेक्टर बनर्जी की डायरी', दिनांक 20 जून,1925' हिस्ट्री नोट एंड ब्रीफ' व्यक्तिगत पत्रावली चंद्रशेखर आजाद

काकोरी के बाद आजाद झांसी में अज्ञातवास काटने लगे। काकोरी की सजा की घोषणा होने के बाद डिप्टी एसपी राय बहादुर जितेंद्र नाथ बनर्जी को गोली मारी गई कानपुर के क्रांतिकारी युवकों ने दल को नए सिरे से खड़ा करने का प्रयास किया HRA की कानपुर में पहली बैठक में आजाद शामिल नहीं थे। दूसरी बैठक में शामिल होने के साथ ही आजाद झांसी से कानपुर आए। और इसमें शामिल हो गए। सितंबर 1928 को दिल्ली में हुई बैठक में चंद्रशेखर आजाद जो कि वहां उपस्थित नहीं थे को सैन्य विभाग का प्रमुख घोषित किया गया और दल के लिए नया नाम चुना गया "हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी"

नए उद्देश्य दिए गए बम बनाने की कला सीखनी काकोरी केस के एप्रुवरों की हत्या की जाए।  फंड जमा करने के लिए मनी एक्शन किया जाए और इसी बैठक में दल के सदस्यों को नए छद्म नाम भी दिए गए। ऐसे समय में ही आजाद और भगत सिंह,आजाद और भगवती चरण वोहरा का एक दूसरे से मिलना हुआ।

आजाद हमेशा ही सजग क्रांतिकारी रहे। विश्वनाथ वैशम्पायन जो कि आजाद के एक विश्वस्त साथी थे उन्होंने लिखा कि आजाद की आदत थी कि जब भी कोई ऐसा साथी पकड़ा जाता जो उन्हें और उनके रहने की जगह जानता था तो वह तुरंत रहने की जगह बदल देते थे और आवश्यकता होती थी तो शहर भी बदल देते थे। अनेक लोगों के मुखबिर होने पर भी पुलिस उनका पता वर्षों तक पा सकी। 

हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन आर्मी के पुनर्गठन की बैठकें लगातार कानपुर में हो रही थी। कराची खाना निवासी विजय कुमार सिन्हा, डी वी कॉलेज के विद्यार्थी सुरेंद्रनाथ पांडे, शालिग्राम शुक्ला के सहयोगी वीरेंद्र नाथ पांडे आदि से आजाद निरंतर संपर्क में थे।

बार-बार आजाद के कानपुर से एक्शन करने की बात का उल्लेख मिलता है। जैसे लाहौर षड्यंत्र केस के बंदियों को छुड़ाने के लिए गयाप्रसाद लाइब्रेरी के बगल के एक मकान में आजाद के द्वारा बैठक लिया जाना और यशपाल के द्वारा इस मीटिंग की पूरी रिपोर्टिंग लिखकर तैयार करना बंदियों को छुड़ाने के लिए रिवाल्वर और नोटिस भी कानपुर से ही उपलब्ध कराई गई थी।

आजाद ने बम बनाने के लिए कानपुर में भी फैक्ट्री डालने के बारे में बात की थी।आजाद ने वीरभद्र तिवारी को कानपुर में लेथिंग फैक्ट्री डालने और हथियार खरीदने के लिए ₹6000 और साइक्लोस्टाइल मशीन खरीदने के लिए ₹1500 अलग से दिए गए।सीआईडी की डायरी के एक अंश से ज्ञात होता है कि आजाद की बम के खोल बनाने की फैक्ट्री भी कानपुर में ही थी। गया प्रसाद लाइब्रेरी, आर्य समाज पुस्तकालय, पटकापुर में बलभद्र प्रसाद मिश्र का घर ,प्यारेलाल अग्रवाल का निवास स्थान आदि कानपुर में उनके ठहरने और काम करने के स्थान हुआ करते थे।

हावड़ा के साथी भी कानपुर में  निरंतर बंगाल के विभिन्न क्रांतिकारी संगठनों के साथ जुड़ने के लिए आजाद से संपर्क कर रहे थे।

क्रांतिकारी साथी यशपाल लगातार पार्टी के नियम तोड़ रहे थे और पार्टी के पैसे का दुरुपयोग कर रहे थे ऐसे में यशपाल के संबंध में निर्णय लेने के लिए एक बैठक कानपुर नहर (पंचक्की)के पास स्थित एक मोहल्ले में आयोजित की गई जिसमें आजाद, धन्वन्तरि वीरभद्र तिवारी, सतगुरु दयाल अवस्थी थे।

11 अगस्त को कानपुर में हुई बैठक में यशपाल को गोली मारने का निर्णय लिया गया था यशपाल के कानपुर पहुंचने पर आजाद और तिवारी उन्हें गोली मार देंगे लेकिन पटकापुर के पास स्थित होटल में बुलाकर

वीरभद्र तिवारी ने यशपाल को पूर्व में इसकी सूचना दे दी, काकोरी एक्शन  कांड से ही वीरभद तिवारी की भूमिका संदिग्ध रही थी।सूत्रों से पता चलता है की 31 अगस्त 1930 को ही आजाद को पता चल गया था कि वीरभद्र तिवारी डबल गेम खेल रहा है। 01, दिसंबर 1930 को कानपुर में सालिगराम शुक्ला शहीद हो गए। साथियों की शहादत,आपसी टकराव और गद्दारी की घटनाएं सामने आने से आजाद ने केंद्रीय समिति को भंग कर दिया।

आजाद का पूरा कार्यक्षेत्र कानपुर होने के बाद भी क्या कारण थे कि आजाद अपनी मृत्यु के तीन दिन पहले कानपुर छोड़कर प्रयागराज चले गए थे? 23 जनवरी 1930 को मलाका जेल से छूटकर वीरभद्र लगातार अन्य साथियों के माध्यम से आजाद को पत्र भेज कर मिलने की गुहार लगाये था,

कानपुर की परिस्थितियां जटिल थी, पुलिस और सीआईडी की सक्रियता कानपुर में बढ़ रही थी। इलाहाबाद में सीआईडी का मुख्यालय था और जैसा आजाद का व्यक्तित्व था कि वे सामान्य अपेक्षा के विरुद्ध कार्य करते थे। आजाद के साथी कैलाशपति जो स्वयं पुलिस का अप्रूवर बन गया था उसने भी अपने बयान में पुलिस को बताया था कि आजाद की किसी भी अन्य जगहों के स्थान पर कानपुर में मिलने की सबसे ज्यादा संभावना है। सीआईडी स्पेशल पुलिस अधीक्षक ने आजाद की पहचान वालों को कानपुर में इंस्पेक्टर शंभू नाथ के पास जमा करना शुरू कर दिया था। जैसा की नाॅट बावर के लिखे पत्र से पता चलता है।

मोतीलाल नेहरू का स्वर्गवास हो गया था कांग्रेस के चोटी के नेताओं का जमावड़ा इलाहाबाद में था। आजाद के कानपुर से इलाहाबाद आने का मुख्य प्रयोजन नेहरू गांधी से भेंट कर लॉर्ड इरविन के साथ चल रही वार्ता में क्रांतिकारियों को छोड़े जाने या उनकी सजा कम करवाने की शर्त जुड़वाने का प्रयास था क्योंकि इस वार्ता के मुख्य व्यक्ति महात्मा गांधी थे जो इलाहाबाद में मौजूद थे।अतः आजाद यहां आए। सूत्रों से ज्ञात होता है कि वीरभद्र तिवारी पर संदेह होने के कारण आजाद दल का केंद्रीय कार्यालय कानपुर से इलाहाबाद लाने का निश्चय कर रहे थे। आजाद की शहादत के अनेक मिथकों और अटकलों पर विराम लगाती हुई यह पुस्तक अनेक सूत्रों के आधार पर यह सिद्ध करती है कि

27 फरवरी,1931 की सुबह ब्रिटिश हुकूमत के जवानों से लड़ते हुए शहीद होने वाले आजाद की शरण स्थली कानपुर के ही वीरभद्र तिवारी ने उनकी मुखबारी की और आजाद वीरगति को प्राप्त हुए पुस्तक में वीरभद्र तिवारी के साथ कुछ अन्य लोगों को भी संदिग्ध बनाया गया लेकिन विभिन्न तथ्यों,आलेखों सामयिक समाचार पत्रों और वीरभद्र तिवारी की पृष्ठभूमि के आधार पर यह सिद्ध होता है कि आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की सूचना वीरभद्र तिवारी ने ही ब्रिटिश सरकार (नाटॅ बावर) को दी थी। वीरभद्र तिवारी के सीआईडी इंस्पेक्टर शंभू नाथ शुक्ला से घनिष्ठ संबंध एवं आजाद की शहादत के पूर्व वाली रात को कानपुर से इलाहाबाद तक की यात्रा के प्रमाण मिलते हैं जबकि वीरभद्र ने गणेश शंकर विद्यार्थी और बालकृष्ण शर्मा नवीन से से झूठा बयानबाजी की कि वह इलाहाबाद में नहीं था।

पुस्तक क्रांतिकारी संघर्ष को देखने की एक नई दृष्टि प्रदान करती है। मैंने पुस्तक के आजाद और कानपुर से संबंधित कुछ ही प्रसंग को उद्धृत करने का एक छोटा सा प्रयास किया है।

पुस्तक में वह सब कुछ सामग्री उपस्थित है जो एक ऐतिहासिक पुस्तक में होनी चाहिए। कुल मिलाकर यह आजाद के संघर्षों की एक ऐसी अद्भुत कहानी है जिसमें तमाम संघर्ष और विद्रूपताएं भी झांकती हैं जिसे पढ़कर कई बार आंखें नम होती हैं, लेकिन आश्चर्यजनक ऊर्जा भी प्रदान करती है।

यहाँ एक बात स्पष्ट करनी आवश्यक है कि सी. आई.डी. के रिकॉर्ड में आज़ाद की हस्तलिपि का जो नमूना था वह भी एक हिन्दी कविता थी। "वेदर स्पेसीमन ऑफ हैंड राइटिंग इन रिकॉर्ड" के सामने लिखा है, “एस, आइटम 'एफ' हिन्दी सांग रीकवर्ड फ्रॉम बहावलपुर रोड हाउस।" हालाँकि फाइल में यह नमूना वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इस हस्तलिपि की शिनाख्त कैलाशपति ने अपने बयान में की है। आज़ाद के संगीत प्रेम का पता उनके केन्द्रीय समिति के सदस्य रहे श्री सदगुरु दयाल अवस्थी के संस्मरणों से भी होता है। वे बताते थे कि "पंडित जी को गाना सुनने का नहीं, स्वयं गाने का भी बहुत शौक था। वीर रस पूर्ण यह स्वरचित गीत जब वह तन्मय होकर बड़ी लगन के साथ गाते थे तब सुननेवाले की भुजाएँ फड़कने लगती थीं-

माँ! हमें विदा दो, जाते हैं हम विजय केतु फहराने आज।

तेरी बलिवेदी पर चढ़कर माँ! निज शीश कटाने आज।

मलिन वेष ये आँसू कैसे, कम्पित क्यों होता तव गात

वीर प्रसूति क्यों रोती है? जब तक खड्ग हमारे हाथ।

धरा शीघ्र ही धसक उठेगी, छूट पड़ेंगे नभ के तार

शत्रु काँपता रह जाएगा, होंगी माँ जब रण हुंकार

नृत्य करेंगे रक्त कुंड में, फिर-फिर खंग हमारी आज

अरि शीश कट यही कहेंगे, भारत भूमि तुम्हारी आज।"

उल्लेखनीय है कि सन् 1930-31 में कानपुर, इलाहाबाद, बनारस तथा आगरा आदि स्थानों से देशभक्ति के गीत-गजलों की छोटी-छोटी पुस्तिका बड़े पैमाने पर निकला करती थी जिनका संकलन राष्ट्रीय अभिलेखागार में देखा जा सकता है 1930 की ऐसी ही एक कविता संकलन क्रांति का संज्ञानात में माता से देवता मांगता हूं नाम से यह कविता पृष्ठ 12 पर संकलित है

तेरे चरणों में सर भर कर जाते हैं करने रण रंग।

फिर भय किसका है, जननी तव आशीष हमारे संग 5

विजय देवि आकर धोनेंगी, तब चरणों को सज जब साज।

पुलकित हो हम गावेंगे, भारत भूमि हमारी आज 6

यह पुस्तिका राष्ट्रीय साहित्य प्रकाशक मंडल, कानपुर से प्रकाशित है। यद्यपि पुस्तिका पर लेखक का नाम मुद्रित नहीं है किन्तु हाथ से गंगासहाय लिखा है जो सम्भवतःसंकलनकर्ता का नाम है। पुस्तिका पर विभाग द्वारा हस्ताक्षर कर 24.02.1930 की तिथि अंकित की गई है। जिससे स्पष्ट है कि यह पुस्तिका सी. आई.डी. अथवा पुलिस को उक्त तिथि पर मिली होगी।

28 मई, 1930 को श्री भगवतीचरण शहीद हुए थे। 2 जून, 1930 को बहावलपुर वाले मकान में रखे दो बमों के स्वतः फटने से वह मकान छोड़ा गया था। यहाँ से पुलिस को दल के कई कागज मिले थे, जिनमें कुछ पत्र श्री यशपाल की हस्तलिपि में मिले थे। इन कागजों में आजाद के हाथ की लिखी कवितावाला एक कागज भी मिला था किन्तु स्पष्ट नहीं कि वह कविता कौन-सी थी? इसी प्रकार श्री नन्दकिशोर निगम ने अपनी पुस्तक 'बलिदान' में आजाद के मुख से सुनी जिन तीन शायरियों का उल्लेख किया है, उनमें एक तो 'दुश्मन की गोलियों' वाली है। शेष दो-

1. टूटी हुई बोतल है टूटा हुआ पैमाना, सरकार तुझे दिखा देंगे ठाठ फकीराना।

2. शहीदों की चिताओं पर पड़ेंगे खाक के ढेले. वतन पर मिटनेवालों का यही बाकी निशाँ होगा।"

आजाद की शहादत के मात्र तीन माह बाद उनकी पहली जीवनी बनारस से मई, 1931 में छपी थी। पुस्तक के सफा-4 पर 'आजाद की स्वरचित कविता' शीर्षक से दो गजलें प्रकाशित हैं। पृष्ठ 410