मैं चश्मे के भीतर की उस लड़की को कभी समझ ही नहीं पाया जो अनंत पीड़ाओं-कष्टों को मौन होकर झेले जा रही थी। और तुम कभी चश्मे के बाहर उस लड़के का प्रेम ना देख सकी जो अपना सर्वस्व न्योछावर करके तुम्हारे सामने सिर झुकाए बैठा था। मुझे मलाल अगर जीवन में किसी चीज़ का रह जाएगा तो वह होगा इस चश्मे के दरमियां वो रिश्तों का फासला जो हम कभी पूरा ना कर सके।
पर क्या पता तुमने लड़के का प्रेम देखा हो? क्या पता तुमने उस प्रेम को हृदय में स्थान देना चाहा हो? क्या पता लड़के के प्रयास को सराहना चाहा हो? क्या पता चश्मे के बाहर की खुश नज़र दुनिया ने तुम्हें भी आकर्षित किया हो? क्या पता तुमने भी फूल, चांद, सितारे और जूगनू के ख्वाब देखे हों? क्या पता तुमने भी कश्ती की तरह बेबाक लहरों में मौज उड़ाना चाहा हो? क्या पता तुमने भी किसी की गोद में सिर रखकर कुछ पल बिताना चाहा हो? क्या पता किसी के होठों पर तुमने भी अपना माथा रखना चाहा हो? क्या पता, क्या पता, क्या पता? क्या पता तुमने भी एक प्रेम कहानी का हिस्सा होना चाहा हो? किसी से दिल लगाना चाहा हो? प्रेम के गीत गुनगुनाना चाहा हो?
पर तुम्हारे हिस्से में जो आये, वो रहे हों; दुख, मजबूरियां और पाबंदियां। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री होने का दुख, घर की बड़ी बेटी होने के नाते ‘बेटा’ बनने की मजबूरी और अपनी सभी इच्छाओं को मारकर प्रेम ना करने की पाबंदी।
मैं उन कठिनाइयों को कभी महसूस ही नहीं कर पाया जिन्हें तुम झेल रही थी। मैंने हमेशा चाहा तुम चश्मे के बाहर की खूबसूरत दुनिया देख सको पर तुम्हारी बीनाई सिर्फ कांच के दो टुकड़ों तक सीमित रह गई। इन दो टुकड़ों के भीतर था अथाह त्याग, समर्पण और बलिदान। त्याग, सुखों का; समर्पण, आत्मा का और बलिदान महत्वकांक्षाओं का। चश्मे के भीतर तुमने देखी माँ की बूढ़ी आँखें, बहन की अधूरी पढ़ाई और महंगी फीस और देखा तुमने पिता विहीन घर की डगमगाती नींव। तुमने लड़के के प्रेम की जगह माँ के आँखों की रोशनी चुनी, लड़के के प्रयास की जगह चुनी बहन की पढ़ाई और चश्मे के बाहर की खुश नज़र दुनिया की जगह चुना तुमने घर की डगमाती नींव का बोझ, अपने कंधों पर उठाना।
मुझे हमेशा से लगता रहा तुम गलत थी, शायद तुम कुछ फैसले दिमाग से ना लेकर हृदय से ले सकती थी। इतनी कठोर होने की जगह अन्य स्त्रियों की भाँति कोमल हो सकती थी। दो पल के लिए ही सही अपनी ज़िम्मेदारियों को दरकिनार कर खिलखिला सकती थी। एक फूल का खिलना और तुम्हारा मुस्कुराना, सोचो इससे सुंदर धरा पर और क्या हो सकता था? क्या इंद्रलोक की समस्त अपसराओं का शृंगार भी तुम्हारी सादगी के आगे टिक सकता था? क्या सर्पों के राजा के सिर पर सुशोभित नागमणि का, तुम्हारी आँखों की चमक से कोई कोई मुकाबला था? क्या तुम्हारी मीठी पुकार और कान्हा की मुरली से निकली धुन में कोई फर्क बता सकता था ?
तमाम तर्क-कुतर्क के उठा-पटक के बाद मुझे यह एहसास हुआ कि कुछ सवालों का जवाब नहीं होता और कुछ हादसों का हिसाब नहीं होता। वो बस होने के लिए हो जाते हैं, किसी को तोड़कर बर्बाद करने के लिए तो किसी को जोड़कर आबाद करने के लिए। तुम सही थी पर शायद मैं भी गलत नहीं था। मुझे बस ज़रूरत थी एक ‘चश्मे’ की।
हिमांशु श्रीवास्तव - उपसंपादक, इनशॉर्ट्स